ओम प्रकाश भट्ट
उत्तराखण्ड का एक और ऐतिहासिक शहर जोशीमठ बर्बादी के कगार पर है। आदिगुरू शंकराचार्य की तपस्थली के लिए जाना जाने वाला यह नगर भूं-धसाव की जद में है। पिछले कुछ महीनों से यहां के दो बड़े होटलों समेत 561 आवासीय संरचनाएं भू-धसाव से क्षतिग्रस्त हो चुकी है। बुधवार को किए गए सरकारी सर्वेक्षण में 561 आवासीय संरचनाएं भू-धसाव के से क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। इस सरकारी सर्वेक्षण की इस नफरी से वास्तविक क्षति और अधिक होने का अनुमान है। बदरीनाथ नेशनल हाई-वे का बड़ा हिस्सा भूं-धसाव की चपेट में है। लोगों के खेतों में बड़ी-बड़ी दरारे आ चुकी हैं। ये दरारे हर दिन चौड़ी हो रही है। बीते दिवस मारवाड़ी के समीप जेपी कालोनी में अचानक एक जलधारा भी फूट पड़ी है,इस सबसे लोग धबराये हुए हैं।
जोशीमठ नगरपालिका के रविग्राम, गांधीनगर, मनोहरबाग, सिंहधार वार्डों में सबसे अधिक भूं-धसाव के मामले देखे गए हैं। सुरक्षा की दृष्टि से अब तक 34 परिवारों अपने घरों को छोड़ चुके हैं। कुछ अपने परिचितों के यहां रह रहे हैं तो कुछ शरणालयों में रह रहे हैं। हालात ऐसे बन रहे हैं कि शरण लेने वालों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जायेगी।
जोशीमठ, कई बड़ी चीजों से पहचाना जाता है, धर्म और संस्कृति से शुरू करें तो विख्यात बदरीनाथ धाम और आदि गुरू शंकराचार्य की तपस्थली इस शहर की पहचान है। दूसरी पहचान उत्तराखण्ड में चल रहे तथाकथित विकास की धारा से जुड़ी है, इसमें विश्वविख्यात स्कीईंग केन्द्र औली, एशिया की सबसे लंबी और ऊंचाई पर स्थित रोप-वे परियोजना और जयप्रकाश बैंचर्स की 420 मेगावाट की विष्णुप्रयाग जलविद्युत परियोजना तथा एनटीपीसी की 520 मेगावाट की निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगाढ़ जलविद्युत परियोजना भी शामिल है।
शहर की तलहटी में बदरीनाथ से निकलने वाली तेज प्रवाह वाली अलकनन्दा और धौली गंगा प्रवाहित होती है। इसी तलहटी पर विष्णुप्रयाग में धौलीगंगा, अलकनन्दा नदी में मिलती है। विष्णुप्रयाग जो उत्तराखण्ड के पांच प्रयागों में पहला प्रयाग है, जोशीमठ की ऐतिहासिकता का गवाह है। धार्मिक और सांस्कृतिक शहर के साथ भारत-चीन सीमा के करीब, सबसे बड़े नगरों में एक होने तथा अपनी विशिष्ट स्थिति से सामरिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण नगर है। जोशीमठ की इस दशा ने स्थानीय आबादी की पीड़ा बढ़ाने के साथ देश की सुरक्षा से जुड़े पहलुओं पर भी संकट खड़ा कर दिया है।
20 से 30 हजार की नियमित आबादी और एक दर्जन से अधिक गांवों की खुशहाली से जुड़े इस शहर के लिए भू-स्खलन और भूं-धसाव की घटनाए कोई नई नही है, इसकी बसावट और भूगोल में यह दंश छिपा है।नया अगर कुछ है तो वह है इन खतरों की जानबूझकर अनदेखी करना। इस ने जोशीमठ जैसा सदियों पुराने शहर के आस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। सैतालिस साल पहले नवभारत टाइम्स और दिनमान में छपी रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है। नवभारत टाइम्स ने मार्च 1976 श्री चण्डी प्रसाद भट्ट की जोशीमठ की स्थिति और कारण तथा निराकरण को लेकर और दिनमान ने जुलाई 1976 श्री अनुपम मिश्र की भी इसी जोशीमठ शहर के भूस्खलन और भूं-धसाव को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित की थी। जिसमें आज से कुछ कम लेकिन आज की जैसी ही समस्या से दो चार होते जोशीमठ नगर के हालात पर लिखा गया था। जोशीमठ की बसावट को लेकर प्रख्यात भूगर्भवेत्ता हेम और गैंसर की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कारण और बचाव को लेकर चर्चा की गई थी। नवभारत टाइम्स में छपी रिपोर्ट से पूर्व श्री भट्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को जोशीमठ के भूधाव को लेकर 11 मार्च 1976 को तथ्यात्मक पत्र लिखा था जिसके बाद तत्कालीन उत्तरप्रदेश सरकार ने तत्कालीन गढ़वाल के आयुक्त महेश चन्द्र मिश्र की अध्यक्षता में ठीक एक महीने के भीतर विज्ञानियों, तकनीकीविदों, प्रशासकों और चमोली की जिलापंचायत के अध्यक्ष और जोशीमठ के प्रमुख समेत 18 सदस्यीय समिति का गठन इस समस्या के निराकरण के लिए किया था। जिसमें श्री चण्डी प्रसाद भट्ट को भी सदस्य बनाया गया था। उस दौर में समिति ने जोशीमठ का भ्रमण किया। विज्ञानियों और तकनीकीविदों ने जोशीमठ की भूगर्भीय हालात और भौगोलिक स्थिति के साथ स्थानीय स्तर पर भ्रमण कर भूं-धसाव और भू-स्खलन के कारणों का अध्ययन किया।



नगर के निचले हिस्से में दोनो नदियों की टो कटिंग आदि कारणों पर ध्यान दिया था जिससे जोशीमठ की तलहटी से शुरू होने वाले पहाड़ी को टो-सपोर्ट प्रभावित होने से भू-स्खलन और भूं-धसाव की घटनाएं सक्रिय हो जाती है। हिल-वासिंग और जल-रिशन जो शीतकाल में बर्फ के साथ शुरू होता भी उन कारणों में एक बताया था जिसके कारण जोशीमठ में भू-धसाव हो रहा था। इस प्रक्रिया में बर्फ का पानी धरती के अंदर रिसता है जिससे मिट्टी और बौल्डर्स की आपसी पकड़ कमजोर हो जाती है। इस सबके साथ जोशीमठ नगर में अनियोजित विकास को बड़ा कारक माना था। 62 में चीन युद्व के बाद निमार्ण गतिविधियों में तेजी आयी थी जिसके लिए विस्फोटक आदि का उपयोग हुआ था। इन संरचनाओं के निमार्ण में विस्फोटक के उपयोग के साथ-साथ अवशिष्ट जल की निकासी की उचित व्यवस्था पर ध्यान न दिया जाना। जोशीमठ के प्राकृतिक वन इन निमार्ण और विकास गतिविधियों की भेंट चढ़े। जिस पहाड़ी पर जोशीमठ नगर बसा है वह मूल रूप में जिनेसिस श्रेणी की चट्टान है जिनकी खासियत एक परत के उपर दूसरी परत के रूप में होती है। इन सारे कारकों का असर से यह एक परत से दूसरी परत अलग हुई और इससे भूं-धसाव और भू-स्खलन की प्रक्रिया तेज हुई।
इस समिति ने जोशीमठ नगर का जीवन बचाने के लिए 47 साल पहले जो सुरक्षात्मक उपाय बताये थे वे आज भी उसी तरह प्रासंगिक हैं। भारी निमार्ण कार्यो पर पूर्ण रोक, अन्य आवश्यक निमार्ण कार्यो के रेगुलेशन के लिए भूमि की भारवहन क्षमता के आधार पर ही निमार्ण की अनुमति, सड़क और अन्य संरचनाओं के निमार्ण के दौरान बौल्डर्स के खोदने और विस्फोट से हटाने जैसी निमार्ण प्रक्रिया पर पूरी तरह रोक लगाने। नदी तट से पहाड़ी की ओर पत्थरों की निकासी न करने। जोशीमठ के निचले हिस्से में वनीकरण तथा संरक्षित क्षेत्र में हरियाली का दायरा बढ़ाने के सुझाव दिए थे। जहां जहा उस दौर में धरती में दरारे दिख रही थी उन्हें भरने की योजना बनाने, नैनीताल की तर्ज पर नालियों की इस तरह की व्यवस्था करने जिससे भूकटाव की संभावना न्यून हो जाय। गड्डो में पानी जमा होकर रिसे नहीं इसके लिए जहां भी गड्डेनुमा संरचना हो उसे भरने की व्यवस्था करने, नगर के भीतर और बाहर से लाए गए साफ तथा गंदे पानी और मल की निकासी की उचित व्यवस्था के साथ नदी तट पर टो कटिंग वाले इलाकों में इंजिनीरिंग वर्क की संस्तुति की गई थी।
मिश्र कमेटी की कुछ सुझाव पर राज्य सरकार ने तभी कार्य शुरू कर दिया था खासतौर पर इंजिनियरिंग से जुड़े कुछ कार्य शुरू किए गए थे। लेकिन निरोधात्मक कार्यो पर कभी इमानदारी से कार्य नहीं हुआ। भारी निमार्ण कार्य बदस्तूर चलते रहे। विस्फोटकों का उपयोग निमार्ण कार्यो के लिए अभी भी उसी गति से हो रहा है। निमार्ण कार्य के लिए भूमि की भार वहन क्षमता का भी कभी आकलन नहीं हुआ। आबादी बढ़ने के साथ बाहर से पाईपों से पानी पहुंचाया गया लेकिन निकासी की व्यवस्था में उस गति से कोई नई संरचना नहीं बनी। आज 1976 के मुकाबले आबादी कई गुना बढ़ गई है लेकिन सीवर से लेकर पानी की निकासी की व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया।
जोशीमठ में एकाएक भूस्खलन और भू-धसाव की घटना बढ़ने के कई कारण वैज्ञानिक और पर्यावरणविद गिना रहे हैं उनमें से अधिकतर कारण 1976 की मिश्रा कमेटी चर्चा कर चुकी है। प्रख्यात पर्यावरणविद और जोशीमठ को बचाने के लिए 1976 में डेढ माह तक जोशीमठ के मारवाड़ी में एक सौ पचास छात्रों के साथ पौधरोपण शिविर का आयोजन करने वाले चण्डी प्रसाद भट्ट कहते हैं कि 7 फरवरी 2021 को तपोवन हादसे के दौरान धौलीगंगा में जो उफान आया था उसने जोशीमठ की तलहटी में पहले धौली के तट और फिर अलकनन्दा के तट पर विष्णुप्रयाग से मारवाड़ी पुल तक इलाका टो कटिंग से अस्थिर कर हुआ। उस इलाके में उस दिन कुछ मिनट के लिए नदी का पानी दस से बीस मीटर तक उपर उठ गया था और तटवर्ती पहाड़ी की मिट्टी भी काटकर अपने साथ ले गया था। इससे मिट्टी खिसकने की प्रक्रिया शुरू हुई जिसका असर जोशीमठ नगर पर दिखायी दे रहा है। इसके साथ औली में हो रहे निमार्ण में भी इलाके की संवेदनशीलता को ध्यान में नहीं रखा जा रहा है। औली में कृत्रिम बर्फ बनाने के लिए बाहर से पानी लाया गया है झील बनायी गई है। समिति ने बौल्डर्स हटाने पर रोक की सिफारिश की थी। जो लागु नहीं हुई। इसी के नीचे से बड़ी परियोजनाओं की सुरंग बन रही है। धरती के बाहर और भीतर दोनो जगहों खतरों की जानकारी होने के बाद भी दुस्साहस किया जा रहा है। मिश्र समिति के सुझाव आज भी प्रासंगिक है। इन्हें लागू किया जाना चाहिए। जिससे कुछ हद तक स्थिति फिर से ठीक हो सकती है।
पीड़ित जोशीमठ में सड़कों पर हैं। पुनर्वास और दीर्धकालिक उपायों को लागू करने की बात कर रहे है। बालू और पत्थरों के ढेर पर बसे इस शहर को सरकार से ज्यादा वहां के लोग ही बचा सकते हैं। मिश्र समिति के सुझाव का कड़ाई से पालन हो इसकेे लिए दबाव बना कर कर यह किया जा सकता है। लापरवाही का नतीजा उत्तराखण्ड के उन सैकड़ों गांवों की स्थिति जैसी होगी, जो इस तरह की पीड़ा के कारण जमींदोज हो रहे हैं। उत्तरकाशी जिले का भागी गांव इसका ज्वलंत उदाहरण है। बागी गांव,जिसके सारे घर भूधसाव के कारण धरती के गर्भ में समा चुके हैं।