Saturday, March 15, 2025
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Chipko 50 Years: चिपको के बाद यही पुकार, जंगल नहीं जलेंगे अबकी बार, ‘चमोली’ में चिपको नए रूप में।

50 Years of Chipko Movement

– ओम प्रकाश भट्ट

इस साल पहली अप्रैल को चिपको के उद्घोष को पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं। इससे पहले चिपको आंदोलन के पचासवें साल में पहुंचने के अवसर पर पहली अप्रैल 2022 से चिपको आंदोलन के ऐतिहासिक स्थलों पर प्रमुख तिथियों पर सालभर कार्यक्रम चले। शुरूआत चिपको आंदोलन की मातृ संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के उसी परिसर से हुई जहां आज से ठीक पचास साल पहले पूरे इलाके के जनप्रतिनिधियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और विभिन्न राजनैतिक दलों से जुड़े स्थानीय कार्यकर्ताओं ने चिपकों आंदोलन का औपचारिक निर्णय लिया था।

पहली अप्रैल 1973 को इसी परिसर में बमियाला गांव के तत्कालीन सभापति और स्वतंत्रता सेनानी स्व. बचन सिंह रावत की अध्यक्षता में संपन्न बैठक सरकार की वन-नीतियों की खामियों को दूर किए जाने और साईमन कंपनी के हाथों मण्डल के जंगल के अंगु के पेड़ कटने से बचाने के लिए सीधी लड़ाई के रूप में चण्डी प्रसाद भट्ट द्वारा सुझायें गए पेड़ों पर अग्वाल्टा (चिपक) कर पेड़ बचाने की कार्यनीति को स्वीकार किया और सर्वसम्मति से इस पर सहमति बनायी। उसी बैठक में मंडल के जंगल में अंगु के पेड़ के कटान को रोके जाने का निवेदन करते हुए पेड़ बचाने के लिए ठेकेदार की कुल्हाड़ी का वार पीठ पर सहन करने की रणनीति के निणर्य की सूचना का ज्ञापन तैयार कर चमोली के तत्कालीन जिला-अधिकारी और उत्तर प्रदेश सरकार को दिया गया था।

इस बैठक में सौपी गई जिम्मेदारियों के 23 दिन बाद 24 अप्रैल 1973 को पेड़ों के बचाने के लिए मंडल के जंगल से सटे इलाके गौण्डी में सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में चिपकों के नारे गूंजे। मंडल के तत्कालीन ग्राम सभापति स्व. आलम सिंह बिष्ट की अध्यक्षता में वहां चिपको की पहली एक्शन बैठक में मण्डल घाटी के गांव-गांव से लोग जुटे थे। समीपवर्ती पोखरी इलाके की खदेड़-पट्टी से गाजे-बाजे और भांकूरों के साथ लोगों का हजूम गौण्डी पहुंचा था। चण्डी प्रसाद भट्ट 24 अप्रैल 1073 को मण्डल-गौण्डी की घटना को याद करते हुए कहते हैं पूरे इलाके के सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति वहां मौजूद थे। जंगल बचाने के लिए अलग-अलग लोगों को उनकी क्षमता के आधार पर आगे की जिम्मेदारी सौंपी गई। पेड़ों को बचाने के लिए अपनी पीठ पर कुल्हाड़ा सहन करने का गांधीवादी अहिंसक विचार हर किसी को अपना लग रहा था और लोग इससे जुड़ते गए।

आंदोलन के तत्काल बाद मण्डल के अंगु के पेड़ों को काटने का विचार वन विभाग को छोड़ना पड़ा। मण्डल के स्थान पर साईमन कंपनी को मण्डल से साठ किलोमीटर दूर केदारघाटी में रामपुर-न्यालसू के सीला के जंगल में खड़े अंगू के पेड़ फिर से एलाट हुए। मई से लेकर दिसम्बर 1973 तक घाटी के लोगों ने बैठकों, जुलूस-प्रदर्शन और अंतत 25-26 को सीला के जंगल में प्रत्यक्ष आंदोलन चला। साईमंड कंपनी के ठेकेदारों को वहां से बैरंग लौटने पड़ा। इन दो घटनाओं के बीच अलकनंदा के ऋषिगंगा के जलागम में रेणी के जंगल सैकड़ों पेड़ों के कटान का निणर्य सरकार ने लिया था।मण्डल के प्रतिरोध के एक साल बाद रेणी में भी चिपको आंदोलन ने ऋषि गंगा घाटी में सैकड़ों पेड़ों को कटने से बचाने में कामयाबी हासिल की। यह सिलसिला फूलों की घाटी नेशनल पार्क से जुड़े भ्यूडार गांव, पिण्डर-घाटी में डूंगरी-पैतोली, टिहरी, अल्मोड़ा और नैनीताल से होते हुए देश और दुनिया में फैला और पेड़ों को बचाने के प्रतिरोध और पर्यावरण संरक्षण का एक ज्वलंत उदाहरण तरीका बनकर उभरा।
इन पचास सालों में इन इलाकों में कई पीढ़ियां गुजरी और कई नई पीढ़ी आयी। कुछ गिनती के लोगों को छोड़ दे तो चिपको की एक पूरी पीढ़ी दुनिया से विदा हो चुकी है।

चिपको की स्वर्णजयंती समारोह के सिलसिले में इसके ऐतिहासिक स्थलों में आयोजित कार्यक्रमों के दौरान कई सारे बदलाव मिले। सकारात्मक बदलाव हर कहीं दिखायी दे रहा है। बंजर इलाके पहले की अपेक्षा हरे-भरे हो रहे हैं। जंगलों पर दबाव पहले से कम हुआ है। ग्रामीणों खासतौर पर महिलाओं को जंगल से जुड़ी काश्तकारी के लिए पहले की अपेक्षा कम दूरी तय करनी पड़ रही है। लेकिन दुखद पहलू यह भी था नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के काम और ज्ञान से अपेक्षाकृत कम जानकारी रख रही थी। 25 और 26 दिसम्बर 2022 को केदारघाटी के रामपुर-न्यालसू गांव पचासवीं सालगिरह का कार्यक्रम हालांकि पूरी तरह स्थानीय लोगों द्वारा संचालित था। दो दिन तक रात दिन न केवल रामपुर और न्यालसू गांव के लोग अपितु आस पास के लोग इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए जुटे रहे लेकिन चिपको के इस गांव में चिपको का जो ज्ञान नयी पीढ़ी को सहज रूप् से होना चाहिए था वह उस रूप् में नहीं था। चिपको की गाथा को नए बच्चे और युवा आश्चर्य से सुन रहे थे। युवाओं को विश्वास नहीं हो रहा था कि उनके पूर्वज जिनमें से अधिकतर इस दुनिया से विदा ले चुके हैं, हफ़्तों तक गाजे-बाजे के साथ जंगलों की रखवाली के लिए घर से मीलों दूर सीला के जंगल में गए होंगे।
मण्डल,रामपुर-फाटा और रेणी में हुए आंदोलन के बाद सरकार आंदोलनकारियों की बातों में दम दिखा और इस इलाके में पेड़ों की कटाई प्रतिबंधित कर दी। वन-विभाग ने अपनी दस-साला कार्ययोजना इन इलाकों में स्थगित कर दी और नई कार्ययोजनाओं में पेड़ों के व्यावसायिक कटान का अध्याय ही हटा दिया।

चिपको आंदोलन की मातृ संस्था दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल ने पेड़ों को बचाने के लिए चिपको के संघर्ष के दौर को रचना में बदला। बंजर और वृक्ष विहीन हो चुके इलाको में जंगल बढ़ाने के लिए 1975 से वन और पर्यावरण शिविरों की अनोखी पहल शुरू की। इसके जरिये जहां वन और पर्यावरण के प्रति जनजागरण की लहर चली वहीं बंजर इलाकों को हरा-भरा करने का प्रयास शुरू हुआ। इसकी शुरूआत भी मण्डल के चिपको वाले पांगरबासा के जंगल में पहले वन एवं पर्यावरण से शुरू हुई। शुरू में इन शिविरों में संस्था के कार्यकर्ताओं के साथ महाविद्यालय के छात्र और वनअधिकारी शामिल होते थे लेकिन बाद में इनमें ग्रामीणों की भागीदारी भी बढ़ी खासतौर पर महिलाओं ने इसे अपनी समस्या और उसके निराकरण का मंच माना और इन कार्यक्रमों से जुड़ती गई। यह क्रम 1976 में जोशीमठ के निचले भाग में विष्णुप्रयाग से मारवाड़ी पुल के बीच के बंजर और भूधसाव वाले इलाके में हरियाली लाने के लिए पैतालिस दिन के शिविर जिसमें कुमाऊं विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा कैम्पस के छात्रों ने भी बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी की। अलकनन्दा की बाढ़ का दंश झेल चुके इलाकों जिनमें गौणा घाटी और मुख्य रूप् से पीपलकोटी से मारवाड़ी के बीच के दर्जनों गांवों में इन पर्यावरण शिविरों की श्रृखलाएं आयोजित हुई। लोक चेतना और हरियाली विस्तार को लेकर इन कार्यक्रमों के सकारात्मक परिणाम दिखे। इसरों ने वाकायदा इस पर दो रिपोर्ट तैयार की।

चिपको का संघर्ष और वन और पर्यावरण संरक्षण के लिए रचना के कार्य पचास साल बाद भी चल रहे हैं इनकी गति और व्यापकता में उंच नीच हो सकती है लेकिन इनकी निरंतरता अभी भी जारी है जो कई रूपों में इन इलाकों में देखी जा सकती है। चण्डी प्रसाद भट्ट कहते है, चिपको आंदोलन आज भी जीवंत है। पहले पेड़ों को बचाने की बात थी आज परिवेश को बचाने का संघर्ष है। रचना के ये कार्य जोशीमठ, दशोली और पोखरी के दर्जनों गांवों की बहिनों के द्वारा और उनसे सीख लेकर अलग-अलग इलाकों में देखा जा सकता है। रचना के ये सवाल जंगल बचाने, जंगल के उपयोग और फैसले लेने जैसे मसलों से भी जुड़े रहे हैं जिन पर समय-समय पर महिलाओं ने अपने-अपने तरीके से लक्ष्य हासिल किया। डुंगरी पैतोली में पुरूषों ने विकास के नाम पर गांव के समीप के बांज के जंगल को बिना महिलाओं की राय लिए उद्यान विभाग को दे दिया था। जिस पर उपयोग और समस्या के सवाल पर महिलाओं ने अपने ही पुरूष और विकास विभाग के खिलाफ आंदोलन चलाया और बांज के इस जंगल का बड़ा हिस्सा आंदोलन के जरिये बचाया। बछेर में महिलाओं ने वन पंचायत में निणर्य के अधिकार को लेकर चुनौती दी और वनकर्म में पुरूषों की भागीदारी न होने पर वन पंचायत की व्यवस्था पूरी तरह अपनी हाथ में ले ली। यही सवाल टंगसा और गोपेश्वर समेत अनेक गांवों की महिलाओं ने उठाये और वन पंचायत में निणर्य लेने की क्षमता पुरूषों से लेकर अपने हाथ में ली। मालई गांव में जंगल की गुणवत्ता को लेकर बहिनो ने सवाल उठाये। मालई के समृद्व बांज के जंगल में चीड़ के पौध रोपने की वन विभाग की कार्यवाही का विरोध किया और जिन वन विभाग के अधिकारियों ने वहां चीड़ के पौध रोपे थे उन्हीं से उन पौधों को बजंर जमीन पर ट्रांसप्लांट कराया। और पूरे उत्तराखण्ड में वन विभाग की पौधशालाओं से चीड़ की पौध तैयार करने की प्रक्रिया रोकने के सरकारी आदेश कराये। चिपको से जुड़ी महिलाओं का रचनाकर्म यह भी रहा कि कई गांवों की महिलाओं ने अपने प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर प्रबंधन किया। घास लकड़ी से जुड़ी रोजाना की समस्याओं को कम करने का प्रयास किया। पपड़ियाणा जैसे अनेक गांव इसके उदाहरण हैं।

चिपको की लड़ाई सरकार की वन नीतियों की खामियों को लेकर शुरू हुई। 1970 की अलकनन्दा की बाढ़ के अनुभव ने चिपको आंदोलन को दिशा दी। जंगल और बाढ़ का संबंध इस आपदा ने पूरे इलाके में हुई बर्बादी से स्पष्ट किया था। संवेदनशील इलाकों में वनों की कटाई पूरी तरह रोकी जानी चाहिए यह मांग चिपकों की प्रमुख मांग में एक थी। जिसे चिपको समिति ने भी माना और अपनी रिपोर्ट में इन इलाकों में वनों के कटान को पूरी तरह रोकने की सिफारिश की थी। यह अभी भी लागू है। चिपको की लड़ाई के पीछे ऐसी वननीतियां बनाने की मांग थी जिसमें वनों के संरक्षण और संवर्द्वन का भाव छिपा हो। जिसके जरिये वन और वन संपदा के संरक्षण के साथ स्थानीय लोगों की आजीविका संवर्द्वन में इसका योगदान हो। संरक्षण के साथ वनों से जुड़े ग्रामोद्योगों को विकास हो। ऐसी वन नीति बनाने की मांग चिपको के जरिये की गई थी जिसमें वनों का संरक्षण मुख्य भूमिका में हो।

इन पचास सालों में चिपको ने गांव से लेकर अंतरराष्टीय जगत तक वन और पर्यावरण संरक्षण को लेकर जबरदस्त इजाफा किया। अपेक्षाकृत हरियाली का दायरा बढ़ा, पेड़ों का व्यावसायिक कटान रूका। दूसरी ओर खतरे भी बढ़े। विविध कारणों से प्राकृतिक वन खतरे में हैं। उत्तराखण्ड की ही बात करे तो यहां जलवायु परिवर्तन, विकास योजनाएं, अनियोजित और अनियंत्रित पर्यटन गतिविधियों, परम्पराओं की अनदेखी, गांवों से बेतहाशा पलायन, गांवों में बुनियादी सुविधाओं का गुणात्मक रूप् से अभाव के सयुक्त प्रभावों से पिछले कुछ दशकों में आपदाओं की तीव्रता और मार में बढ़ोत्तरी हुई है। मानव वन्य जीव संघर्ष बढ़े है। वनाग्नि की घटनाये बढ़ी है। जिसका प्रभाव यहां के पर्यावरण और वन संपदा पर भी पड़ा है।

उत्तराखण्ड समेत अनेक राज्यों में पिछले दो-तीन दशकों में जंगल की आग, वनसंपदा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन कर उभर रही है। यही हालत अनियोजित और अनियंत्रित पर्यटन गतिविधियों के कारण हमारे संरक्षित इलाके खासतौर पर बुग्याली इलाके जो गंगा और यमुना की सहायक धराओं के रिजर्बवायर के रूप में जाने जाते हैं खतरे में है। बांज के जंगलों पर संकट है। इन खतरों की पहचान करते हुए दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के स्वयंसेवियों ने छोटे प्रयोग किए है। जिसमें बुग्यालों को बचाने के लिए जनजागरूकता और सरकारी स्तर पर अधिकारियों को रिपोर्ट देना। वनाग्नि की रोकथाम के लिए पिछले पांच सालों से अत्यंत संवेदनशील वन क्षेत्र के इलाके में अध्ययन और जनजागरण यात्रायें और बांज से संपन्न इलाकों में लौह हल के प्रसार से जुड़े कार्यो की शुरूआत की है। कई जगह इन कार्यक्रमो के सकारात्मक परिणाम भी दिखे है। चिपको के बाद यही पुकार जंगल नहीं जलेंगे अबकी बार का नारा पूरे चमोली जिले में फिर से वनाग्नि अध्ययन यात्रा के जरिये चिपकों का नया नारा बन चुका है। बुग्यालों के संरक्षण के लिए लीगल और सामाजिक दोनो स्तर पर पहल करने के परिणाम यह हुए है कि नौवे दशक में जिस गति से बुग्यालों को टूरिस्ट गतिविधियों के बर्बाद किया जा रहा था वह थमा है। चिपको वन और पर्यावरण को बचाने का एक ऐसा मंच बन चुका है जो भविष्य में भी लोगों द्वारा अपने जंगल और परिवेश बचने के लिए गाँधीवादी साधन का कार्य करेगा।


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