– विनय सेमवाल
हिन्दी साहित्य जगत में छायावाद जब अपने पूर्ण वैभव के बाद अस्तांचल की ओर था और प्रगतिशील कविता उदय की ओर अग्रसर हो रही थी। तभी सुदूर हिमालय की चोटी से मंदाकिनी की धारा के साथ एक युवा “रसिक” का गीत काव्य भी उसमें समाहित होकर साहित्य जगत के सागर काशी और प्रयाग को भी अपनी मधुर लहरों से स्पंदित कर रहा था।
विद्रूप !मंदाकिनी की लहरों के साथ उठा यह मधुर स्पंदन लघु काल तक ही रहा लेकिन उसके गीत काव्य की स्वर लहरियों पर संपूर्ण जगत युग-युगांतर तक थिरकता रहेगा। गीत काव्य के इन मधुर स्पंदनो का वह सृजक था, हिमालय का सुकुमार भौतिक जगत में अल्पायु और साहित्य जगत में चिरंजीवी चंद्रकुँवर।
28 वर्ष की युवा अवस्था में जब एक युवा कवि कविता का ककहरा और बारहखड़ी सीख रहा होता है। उस उम्र में माँ शारदा का यह वरद पुत्र प्रौढ कविता का सृजन कर हिंदी साहित्य जगत को नंदिनी, गीत माधवी, पयस्विनी, काफल पाक्कु आदि कालजयी रचनाएं भेंट कर अपने उद्गम की ओर लौट भी चुका था।
जीवन परिचय
अपने लघु जीवन में कल्पना से परे उच्च साहित्य के सृजनकर्ता चंद्रकुँवर सिंह बर्त्वाल का जन्म 20अगस्त 1919 को रुद्रप्रयाग जनपद के तल्ला नागपुर के ठाकुरों के सुप्रसिद्ध गाँव मालकोटी के एक संभ्रांत थोकदार परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ठाकुर भूपाल सिंह बर्त्वाल तथा माता का नाम जानकी देवी था।
भूपाल सिंह बर्त्वाल नागनाथ मिडिल स्कूल में प्रधानाचार्य थे। बर्त्वाल दंपति नें अपनी इस इकलौती संतान का नाम कुँवर सिंह रखा जिसे साहित्यिक जगत नें चंद्रकुँवर के नाम से जाना। चंद्रकुँवर ने प्रारंभ में कुछ कविताएं “रसिक” नाम से भी लिखी थी।
इनकी प्रारंभिक शिक्षा प्रा.वि. उड़ामांडा में तथा मिडिल स्तर तक की पढ़ाई नागनाथ (पोखरी) में हुई। 1928 में नागनाथ से सातवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगे की पढ़ाई पौड़ी के मेसमोर हाई स्कूल और देहरादून के डी ए वी कॉलेज में हुई। देहरादून से इंटर मीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1939 में उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद चले गए ।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीए की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चाद् इन्होंने स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिये लखनऊ विश्व विद्यालय में प्रवेश लिया। यहीं इतिहास से एम.ए करने के दौरान इनका स्वास्थ्य खराब होने लगा। स्वास्थ्य के ज्यादा खराब होने पर इन्हें पढाई छोड़ वापस घर लौटना पड़ा ।
घर में भी सक्रिय रहते हुए इन्होंने अपनी साहित्य साधना को जारी रखा। अगस्त्यमुनि में मिडिल स्कूल की स्थापना कर कुछ वर्षों तक विद्यालय के प्रधानाध्यापक भी रहे। विद्यालय प्रबंधन के साथ मतभेद हो जाने पर अगस्तमुनि को छोड़ कर अपने गाँव पाँवलियाँ में रहने लगे। गाँव में सात वर्षों तक बिमारी से जूझने के बाद हिमालय के प्रकृति चित्रण का यह भावुक चितेरा 28 वर्ष के अपने लघु जीवन में साहित्य जगत को गीत काव्यों का विराट उपवन जिसमें साहित्य के सभी भावों के पुष्प पल्लवित हुए थे, को सौंपकर 14 सितंबर 1947 को अपनी रचना के द्वारा यह कहते हुए —
“मै जाता हूँ सपनो में, फिर उस प्रिय वन में, जहाँ मिली थी, मुझको वह हँसती बचपन में” , इह लोक से अनंत अंतरिक्ष में विराजमान हो गया।
निश्चित ही ! यदि चंद्रकुँवर अल्पायु न होते तो उनका काव्य कोश कई अधिक विस्तृत और विराट होता तथा हिंदी काव्य धारा का रुख ही कुछ और होता।
साहत्यिक परिचय
बहुत कम उम्र में ही साहित्य के विशिष्ट हस्ताक्षर बन चुके चंद्रकुँवर के काव्य में हिमालय के प्राकृतिक सौंदर्य का जो सजीव तथा जीवंत चित्रण है वह अन्यत्र नही मिलता। इनके काव्य में भौतिक वाद के साथ- साथ आध्यात्मवाद भी समाहित है। सात वर्षों तक रुग्णावस्था मे रहते हुए भी इनकी रचनाओं में मृत्यु को समीप आता हुआ देख कर भी निराशा और दुःख का भाव नहीं दिखता बल्कि वह उसे सहज भाव से आलिंगन करने को तत्पर दिखता है। जिसकी अध्यात्मिक अभिव्यक्ति इनकी एक रचना में इस तरह से मिलती है। “अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी, छोटे से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी। आँखों में सुख से पिघल- पिघल ओंठों में स्मिति भरता- भरता, मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुंदर घाटी में मरता।
एक विरक्त सन्यासी की भाँति इन्हें भी प्रसिद्धि की कोई चाह न थी। जिसे कवि श्रेष्ठ ने अपनी इस रचना के द्वारा व्यक्त भी किया है।
“मुझे न जग में कोई जाने, मुझे न परिचित ही पहचाने रहूँ में दूर जहाँ, हृदय को छू न सके पृथ्वी के दोष”।।
माँ शारदा का यह वरद पुत्र जब तक जिया साहित्य की साधना में ही तल्लीन रहा। साहित्य जगत नें प्रकृति के इस अध्यात्मिक सर्जक और गीतकाव्य के रचनाकार को कब पाया और खो दिया पता ही नहीं चला।
साहित्य जगत में चंद्रकुँवर का प्रादुर्भाव उस कालखण्ड में हुआ,जब छायावाद अपने अवसान की ओर था और प्रयोगवाद एक नई उमंग के साथ धीरे- धीरे आगे बढ़ रहा था । चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने दोनों के बीच एक अलग धारा का सृजन कर अपनी काव्य रचनाएं लिखी।
उस कालखंड में निराला के अतिरिक्त बर्त्वाल ही ऐसे कवि थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में मुक्त छंद का प्रयोग किया। निराला, सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा के समकालीन चंद्रकुँवर को समीक्षकों ने हिंदी साहित्य का कालिदास माना है।
हिंदी के प्रख्यात समालोचक डॉ नामवर सिंह ने तो हिमालय के इस अमर गायक को 1935-40 के दौर में सानेट लेखन की परंपरा को स्थापित करने वाले प्रवर्तकों में प्रमुख बताया है। उमेश चंद्र मिश्र ने सरस्वती पत्रिका के जनवरी 1948 के अंक में बर्तवाल के काव्यगत सौंदर्य व सजीव वर्णन के बारे में लिखा है ,”ऋग्वेद सजीव प्रकृति वर्णन का जो रूप उन्होंने अपनी रचनाओं में उपस्थित किया है वह अन्यत्र देखने को नही मिलता। इस विकासोन्मुख सच्ची कविता का हमारे बीच से उठ जान सचमुच हमारे और हिंदी के दुर्भाग्य का सूचक है”।
राहुल सांक्रित्यायन चंद्रकुँवर की काफल पाक्कु कविता से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इनका उपनाम काफल पाक्कु ही रख दिया। प्रसिद्ध साहित्य कार राजेश जोशी के अनुसार “बर्त्वाल की कविताओं मे प्रकृति का ऐसा सजीव वर्णन मिलता है कि विश्व प्रसिद्ध चित्रकार रोरिक के चित्रों की याद दिला देते हैं। प्रयाग शुक्ल नें इनके बारे में लिखा है, “किसी वाद में न बंधे होने के कारण साहित्य जगत में उनकी चर्चा बहुत नहीं हुई जबकि बाद के लेखकों और प्रवृत्तियों की चर्चा आसानी से की जाती है।
अब तक उपलब्ध रचनाओं के आधार पर चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने लगभग 800 से अधिक गीत,और कविताएं लिखी।जिनमें 25 से अधिक गद्य रचनाएं भी हैं। चंद्रकुँवर बर्त्वाल के काव्य को आम जन-मानस तक पहुँचाने का श्रेय शंभु प्रसाद बहुगुणा, पं. बुद्धिबल्लभ थपलियाल”श्रीकंठ”, डॉ उमा शंकर सतीश (जिन्होंने 269 कविताओं, गीतों का प्रकाशन कराया),डॉ योगम्बर सिंह बर्त्वाल को जाता है। जिनका साहित्यिक जगत सदैव ऋणी रहेगा। विशेषकर पं. शंभु प्रसाद बहुगुणा का जिन्होंने सबसे पहले चंद्रकुँवर बर्त्वाल की रचनाओं का सुव्यवस्थित संकलन कर प्रकाशित कराया।
चंद्रकुँवर के काव्य संग्रहों में नंदिनी, गीत माधवी (लघु गीतों का संकलन), पयस्विनी, (प्रकृति परक रचनाओं का संकलन) जीतू (जीतू बगड्वाल की कथा पर), प्रणयिनी प्रमुख हैं। चंद्रकुँवर बर्त्वाल ने काव्य के अतिरिक्त हिंदी साहित्य के निबंध, कहानियाँ, एकांकी, आलोचनाएं, यात्रा विवरण, आदि सभी विधाओं पर लिखा।
कुछ प्रमुख रचनाएँ:-
(गीत माधवी)
अब छाया में गुँजन होगा, वन में फूल खिलेंगें।
दिशा में अब सौरभ के धूमिल मेघ उड़ेंगे।
अब रसाल की मंजिरियों पर, पिक के गीत झरेंगे,
अब नवीन किसलय मारुत में, मर्मर मधुर करेंगे।
जीवित होंगे वन निद्रा से निद्रित शैल जगेंगे
अब तरुओं में मधु से भीगे कोमल पंख उगेंगे.
पद पद पर फैली दूर्वा पर हरियाली जागेगी
बीती हिम रितु अब जीवन में प्रिय मधु रितु आवेगी.
रोएगी रवि के चुंबन से अब सानंद हिमानी
फूट उठेगी अब गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.
हिम का हास उड़ेगा धूमिल सुर सरि की लहरों पर
लहरें घूम घूम नाचेंगी सागर के द्वारों पर.
तुम आओगी इस जीवन में कहता मुझसे कोई
खिलने को है व्याकुल होता इन प्राणों में कोई.
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हिमालय स्तुति
“हे उत्तर के श्वेतकेश तरुण तपस्वी!
पृथ्वी के निर्मलतम घन, हे वसुधा की स्वर्गभूमि!
हे गंगा की निर्मल लहरों के पिता हिमालय!
मेरी वाणी को प्रशस्तता औ’ शुचिता दो! “
“काफल पाक्कू’’
सखि, वह मेरे देश का वासी-
छा जाती वसंत जाने से है जब एक उदासी
फूली मधु पीती धरती जब हो जाती है प्यासी
गंध अंध के अलि होकर म्लान
गाते प्रिय समाधि पर गान….।
कालिदास,
ओ कालिदास! यदि तुम मेरे साथ न होते
तो जाने क्या होता,
तुमने आँखें दीं मुझको, मैं देखता था प्रकृति को
हृदय से प्रेम करता था उसे,
पर मेरा सुख मेरे भीतर कुम्हला जाता था.
तुमने मेरे सुमनों को गंध देकर
अचानक खिला दिया है.
हे मलय पवन, हे कालिदास,
मैं तुम्हारा अनुचर, एक छोटा-सा फूल हूँ
मौका मिला जिसको, तुम्हारे हाथों खिलने का।
‘रैमासी’
कैलासों पर उगते ऊपर, रैमासी के दिव्य फूल!
माँ गिरिजा दिन भर चुन, जिनसे भरती अपना दुकूल!
मेरी आँखों में आए वे, रैमासी के दिव्य फूल!
मैं भूल गया इस पृथ्वी को, मैं अपने को ही भूल गया
पावनी सुधा के स्रोतों से, उठते हैं जिनके दिव्य मूल!
मेरी आँखों में आए वे, रैमासी के दिव्य फूल!
मैंने देखा थे महादेव, बैठे हिमगिरि पर दूर्वा पर!
डमरू को पलकों में रखकर, था गड़ा पास में ही त्रिशूल!
सहसा आई गिरिजा, बोलीं – मैं लाई नाथ अमूल्य भेंट
हँसकर देखे शंकर ने, रैमासी के दिव्य फूल!
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(गाँव पावालियाँ का वर्णन)
कोलाहल से दूर शांत नीरव शैलों पर
मेरा गृह है जहाँ बच्चियों सी हँस-हँस कर
नाच-नाच बहती हैं छोटी-छोटी नदियाँ जिन्हें देखकर
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(नागनाथ)
ये बाँज पुराने पर्वत से/ यह हिम से ठंडा पानी
ये फूल लाल संध्या से/ इनकी यह डाल पुरानी.
इस खग का स्नेह काफलों से/ इसकी यह कूक पुरानी
पीले फूलों में काँप रही/ पर्वत की जीर्ण जवानी.
इस महापुरातन नगरी में/ महाचकित है यह परदेसी
अनमोल कूक झँपती झुरमुट/ गुँजार अनमोल पुरानी।
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