Monday, April 28, 2025
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Narmada drying up in the neighborhood of Barwani without water बे-पानी बड़वानी के पडौस में सूखती नर्मदा

Narmada drying up in the neighborhood of Barwani without water

🖎 मेधा पाटकर

पिछले कुछ महीनों से नर्मदा को ‘मातेसरी’ मानने वाली, पूजने वाली, परिक्रमावासियों का स्वागत, सम्मान करने वाली, बड़वानी जैसे नर्मदा से कुल 5 किलोमीटर दूर के शहर की जनता हैरान है। कुछ दिनों से अलग-अलग समूह ‘जल’ के लिए तड़पते और आवाज उठाते रहे हैं। क्या जनता पिछले 37 सालों से दी जा रही नर्मदा – आंदोलनकारियों की चेतावनी समझकर अब जागृत हुई है?

बड़वानी, नर्मदा-तट के अनेक शहरों में से एक है जो नर्मदा के पानी पर जीता रहा है। यहां पीने, सिंचाई और निस्तार के दूसरे जरूरी उपयोगों के लिए नर्मदा से पंप या ‘इंटेकवैल’ के जरिए पानी लिया जाता रहा है। शहरवासी अन्न से लेकर श्रमिकों के श्रम तक हर अपरिहार्य पूंजी और वस्तुएं ग्रामीण क्षेत्रों से लाते हैं, जहां आज तक थोड़ी-बहुत प्रकृति और श्रमाधारित संस्कृति बची है। आज जलवायु ही नहीं, अर्थव्यवस्था भी बदल जाने से प्रकृति का विनाश हुआ है और ग्रामीणों के साथ शहरवासियों को भी इसकी वंचना भुगतनी पड़ रही है।

इसका सबसे भयावह उदाहरण नर्मदा के पानी का है, जिसके लिए आवेदन देते बड़वानी के लोग अगर समझेंगे कि इस वंचना की नींव में क्या है, तो ही वे बच पाएंगे। महिलाओं ने मटके फोड़े, किसानों ने सूखी नहरों में पानी छोड़ने की मांग रखी, लेकिन गहराई में उतरकर देखना आज भी बाकी है। राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत संवेदनशील अधिकारियों, कर्मचारियों को भी इसे समझना हो्गा।

आखिर बड़वानी शहर, घाटी का हिस्सा रहे गांव और पुनर्वसित विस्थापितों को पानी क्यों नहीं मिल रहा? करोड़ों रुपए खर्च करके बिठाये ‘इंटेकवैल’ जो ‘90 HP’ तक की क्षमता के हैं, काम क्यों नहीं कर रहे? क्यों बार-बार बिगड़ रहे हैं? कारण है, नर्मदा का सूखना! एक ओर 138.68 मीटर तक ‘सरदार सरोवर’ को बढ़ाया गया, जिसमें 67,000 करोड़ रुपए ‘सरदार सरोवर निगम लिमिटेड’ का खर्च हुआ (जबकि मूल लागत 4200 करोड़ रुपए मानी गई थी!) और दूसरी ओर, नर्मदा का जलस्तर लगातार नीचे गया।

गर्मी में भी 105-10 मीटर के नीचे प्रवाहित जलस्तर कई कारनामों का नतीजा है। सबसे पहला और बेहद गंभीर कारनामा है, अवैध याने बिना-परवाना, बिना-मर्यादा, बिना-शर्त अंधाधुंध चल रहा रेत खनन ! 2010 में केंद्रीय मंत्रालय द्वारा गठित विशेषज्ञों की रिपोर्ट पर 2012 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था। रेत खनन से, भूमि के नीचे का जलस्तर घटता है, तो नदी सूखेगी नहीं तो क्या होगा? जिस तरह यमुना सूखी, जिसे बचाने के लिए उपवासकर्ता स्वामी निगमानंद ने अपनी जान गंवायी! नर्मदा उसी रास्ते बह रही है!

बड़वानी के नर्मदा किनारे की जो कृषि भूमि, आबादी, शासकीय भूमि ‘सरदार सरोवर’ के लिए ही अर्जित की गई थी। वह कार्यपालन यंत्री, ‘नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण’ के नाम होते हुए, कौन खुदाई कर सकता है? उसमें खुदाई के लिए कोई विभाग न लाइसेंस दे सकता है, न मंजूरी। छह मई 2015 का बड़वानी,धार,अलीराजपुर, खरगोन के जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों को ‘मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय’ का स्पष्ट आदेश है, फिर भी किसी को डर नहीं है, ना ही अवैधता और उसके असर की कोई चिंता है।

नर्मदा घाटी के किसानों की फसलें, मूंग की हो या चने की, कम-अधिक बर्बाद होती रही हैं, पाइप लाइनें तोड़-फ़ोड़कर खननकर्ता अपनी कमाई कर ही रहे हैं। जिनकी जो जमीन आंदोलन के कानूनी-मैदानी संघर्ष से 60 लाख और 15 लाख देकर अर्जित हुईं, उन पर मालिकाना हक न होते हुए भी उन्हें लाखों रुपयों में रेत-माफियाओं को बेचा जा रहा है। इसमें बड़वानी के पूंजी-निवेशक हैं, सेंधवा से इंदौर तक के वाहन मालिक हैं और हर स्तर पर कार्यरत, हर रास्ते पर खड़े मजदूर हैं, ड्राइवर हैं।

ट्रैक्टर्स, डम्पर्स, जेसीबी, पोकलेन मशीनें तक नदी किनारे और नदी या जलाशय के जल में उतारी जा रही हैं। तमाम कानून, आदेश और 2022 तक के राज्य शासन के आदेशों का उल्लंघन करते हुए यह जारी है, लेकिन पुलिस, राजस्व, खनिज और ‘एनवीडीए’ की नजरें इन पर नहीं पड़तीं। कोई कार्यकर्ता, नर्मदा बचाने की कटिबध्दता के साथ पीछे पड़ें तो संबंधित अधिकारी या उनके कार्यालय से सीधे खननकर्ताओं को खबर पहुंचती है। शिकायत लेने वाले फोन्स बंद रहते हैं या सुनने वालों के कान बंद होते हैं।

अपशिष्ट, प्रदूषित पदार्थ और जबलपुर से लेकर हर शहर से रोज निकलता करोडों लीटर्स गंदा पानी अनेक जलमार्गों से नर्मदा में मिल रहा है। मध्यप्रदेश शासन ने विश्वभर की साहूकार संस्थाओं से करोड़ों रुपए लेकर भी कोई शुद्धीकरण संयंत्र नहीं बनाया। तो क्या पी रही है, नर्मदा घाटी की जनता?

वैज्ञानिक टैस्ट रिपोर्ट के अनुसार जो पानी पीने लायक नहीं होता, जिससे सिंचाई करने से जैविक-खेती का प्रमाणपत्र शासन से नहीं मिलता वह नर्मदा घाटी को पिलाया जा रहा है। अब साबित हो चुका है कि घाटी से दूर, पीथमपुर के औद्योगिक अपशिष्ट अजनार से कारम नदी होते हुए नर्मदा तक आ रहे हैं। कुछ झूठी रिपोर्ट्स, झूठी खबरें भ्रमित नहीं कर सकतीं, जनता को। अगर बड़वानी जैसे एक शहर में साल-डेढ़ साल में मल्टी-स्पेशलिटी अस्पतालों की संख्या दस तक पहुंचती है तो क्या इसे भुगतते हुए जनता नहीं सोचेगी कि वे बीमार क्यों पड़ रहे हैं?

यह सब जानते हैं कि नदी में पानी कम होने से प्रदूषण की मात्रा बढ़ती है। जरूरत है यह बताने की कि ऊपरी क्षेत्र में बढ़ते बांध और पानी का अ-नियमन तथा हर बांध में डूबता हजारों हेक्टर्स का जंगल, क्या नर्मदा जैसी, मध्यप्रदेश की एकमात्र साल भर बहती नदी को सतत, अविरल और निर्मल प्रवाहित रखेगा?

‘नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण’ (ट्रिब्यूनल) ने भी जब 22.7 ‘मिलियन एकड फीट’ (एमएएफ) के बदले 28 ‘एमएएफ’ पानी की उपलब्धता मानकर लाभों का बंटवारा किया था और ‘सरदार सरोवर’ के एक बूंद पानी पर महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश को हक़ नहीं दिया था। तो क्या नर्मदा किनारे लगे हजारों पंप भी सरकार जब चाहे तब उखाड़ेगी? उसी के लिए किसान, खेत-मजदूरों की, ग्रामसभा की हकदारी नकारकर ‘पाटी परियोजना’ जैसी योजना से सिंचित रहे खेतों को खोदकर पाइप लाइन से सिंचाई देने का खेल खेला जा रहा है।

सोचिये, पीढ़ियों से बहती नदी, प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर घाटी, नदी को रोकने से 60 किलोमीटर तक नदी के जल-प्रवाह में समुन्दर के अंदर घुसने से, क्या नर्मदा ‘मातेसरी’ रह पाएगी? एक बार खोल दिया जंगल, जमीन और ध्वस्त किये किनारे, तो फिर क्या नोचेंगे और बेचेंगे, प्राकृतिक संसाधनों की ‘पूंजी’ के चोर? क्या शासन भी मुनाफाखोरों से गठजोड़ करे बिना रहेगा?

आज बड़वानी से केवड़िया तक, मंजूरी के बिना ही, पर्यटन और जल-परिवहन में बड़े क्रूज की घोषणा की जा रही है। जल की मात्रा और गहराई कम होने से, गाद से भरी गंगा में धंसे क्रूज जैसा धंस सकता है, नर्मदा में भी क्रूज जहाज? क्रूज से पानी, हवा, नदी के प्रदूषण पर ‘केंद्रीय पर्यावरण सुरक्षा मंडल’ की रिपोर्ट ‘हरित न्यायाधिकरण, भोपाल’ में पेश है तो क्या इसे पढ़कर, जानकर गांव और नगरवासियों की मंजूरी ली है? कोई जनसुनवाई हुई है? नहीं!

लेकिन पर्यटन के नाम पर गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश में नर्मदा किनारे खड़े होंगे होटेल्स, चलेगी शराब तो कैसे बचेगी दुनिया में आद्यतन मानी गयी, सादगी, स्वावलंबन की नर्मदा की संस्कृति? आज मध्यप्रदेश ‘मध्‍य प्रदेश’ बन गया है। आगे नर्मदा घाटी क्या मृत-प्रदेश बनती जाएगी? ‘जल है तो कल है’ का नारा भी डूब रहा है नर्मदा में, तो जरुर जाग उठेगी जनता ! आज नहीं तो कभी नहीं!

‘विकास’ के नाम पर हो रहे आक्रमण और अतिक्रमण का विकल्प मुश्किल नहीं है। आसमानी उदारता पर सुलतानी हावी न होने देना जरूरी है। हर साल बरसता पानी अपने-अपने खेत में और छत से उतारकर शहरी बन गयी भूमि में भी उतारना संभव है। छोटे तालाब और विश्नोई समाज की परंपरा जैसा मकान के ओटले के नीचे बनाये टैंक में पानी संग्रहित करना होगा।

इस विकेंद्रित नियोजन के लिए अगुवाई और जिम्मेदारी होगी, स्थानीय संस्थाओं की, ग्राम पंचायत और नगरपालिका की! ऊपर से थोपी जाने वाली परियोजनाएं और पूंजी बाजार के प्रभाव- दबाव में हो रहा प्राकृतिक दोहन न केवल जलवायु में परिवर्तन लाता है, बल्कि जीवन और आजीविका ध्वस्त करता है, इसे समझकर जात, धर्म, लिंग, वर्ग, भेद के पार, एकजुटता से आवाज उठायें, अहिंसक सत्याग्रही बनकर विकास के नाम पर बढ़ रही हिंसा को रोकें। (सप्रेस)

सुश्री मेधा पाटकर सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेत्री हैं।

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