Saturday, March 15, 2025
HomeCultureपौराणिक इतिहास से रूबरू करता शिव का जाग्रत धाम गोपेश्वर का गोपीनाथ...

पौराणिक इतिहास से रूबरू करता शिव का जाग्रत धाम गोपेश्वर का गोपीनाथ मंदिर।

Gopinath temple of Gopeshwar, the abode of Shiva, mentioned in Kedar Khand, Skand Purana. Brahmi inscriptions on the Trident.

विनय सेमवाल

गोपेश्वर। Gopeshwar

प्राचीन काल में गोस्थल (Gosthal) नाम से प्रख्यात भगवान शिव के पंच केदारों में से एक चतुर्थ केदार एकानन श्री रुद्रनाथ जी का शीतकालीन गद्दी स्थल गोपेश्वर जो वर्तमान में चमोली जिला मुख्यालय होने से जहाँ जिले की प्रशाषनिक गतिविधियों का केंद्र है वहीं प्राचीन काल मे यह धार्मिक सांस्कृतिक एवं अध्यात्मिक केंद्र भी रहा है।

केदार खंड स्कंद पुराण

केदारखंड में यहाँ के महात्म्य से अवगत कराते हुए भगवान शिव माता पार्वती से इस क्षेत्र को मम आलय (अपना घर) बताते हुए कहते है कि —

अग्नितीर्थे नरः स्नात्वा सर्वपापे:प्रमुच्यते। यत्र तत्र स्थले देवी शिव लिंगान्यकेशः।।
तस्माद्वे पश्चिमे भागे गोस्थलकं स्मृतम। तन्नाहं सर्वदा देवी निवसामी त्व्या सह:”।

केदारखंड

अर्थात् मेरे केदार क्षेत्र में जहाँ- यहाँ वहाँ चारों तरफ अनेक शिवलिंग है उसके पश्चिम भाग मे गोस्थल नाम का एक तीर्थ है जहाँ में सर्वदा तुम्हारे साथ निवास करता हूँ। वहाँ पशिश्वर् नाम से एक तीर्थ भी है, जो भक्तों की प्रीति बड़ाने वाला है। वहाँ एक पुष्प वृक्ष भी है जो असमय भी सदा पुष्पित रहता है।

इसके अतिरिक्त पौराणिक आख्यानों में यह उलेख भी मिलता है कि यही वह स्थान है जहाँ भगवान शिव ने कामदेव को भष्मीभूत किया था। तब कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे रति कुंड (वैतरणी कुंड) में मछली के रूप मे निवास करने का वरदान भी दिया था।

इसी प्रकार देवी पुराण के 93 वे अध्याय, शिव पुराण मे भी इस क्षेत्र का विस्तार से उल्लेख मिलता है।

स्कंद पुराण के केदार खंड में भगवान शिव अपने आलय रुद्रमहालय जहाँ पर भगवान शिव ने अपनी जटा से बीरभद्र जी की उत्पत्ति की थी तथा पांडवों को अपने एकानन स्वरूप का दर्शन दिया था के बारे में माता पार्वती से कहते हैं—

ऊँ शैलराजस्य पृष्ठे तु श्रुणु स्थानानी यानि वै। अस्ति पुण्या महादेवी नदी वैतरणी शुभा। पितृणाम् तोय दानेन तृप्तिर्भवती पुष्कला।।
तत्रापि परमं देवी पश्येद्रूद्रहिमालायम। हिमालये तु चद्देतं तृटिमात्रम् हि काँचनम्।।
तेन दत्ता भवेत्सर्वा सप्तद्वीपा वसुंधरा।आत्मानम् धातयेद्यस्तु भृगुपृष्ठेषु: मानवः।।

इंद्रेण धारिते छत्रे रुद्रलोक सः गच्छति।।

स्कंद पुराण

मेरे रुद्र महालय में जहाँ मै सदा तुम्हारे साथ निवासरत रहता हूँ वहाँ की पवित्र वैतरणी नदी में पित्रो को तर्पण देने से उन्हें सब प्रकार की तृप्ति प्रदान होती है। यदि कोई इस स्थान पर त्रुटि मात्र भी स्वर्ण दान कर दे तो उसे सात द्वीपों के बराबर भूमि दान करने का फल प्राप्त होता है। और जो ब्यक्ति यहाँ पर मेरी भक्ति में लीन होकर देह त्यागता है उसे मेरा धाम रुद्रलोक प्राप्त होता है।

पौराणिक धार्मिक उल्लेख के साथ ही मंदिर परिसर में स्थित भगवान शिव के आकाश भैरव स्वरूप को समर्पित यह 71 फीट ऊँचा विशाल मंदिर अपनी विशालता के साथ ही पौराणिक वास्तुकला की दृष्टि से अद्वितीय होने के साथ ही विभिन्न कालखंडों की एतिहासिक जानकारियों का भी स्रोत है।

आठवीं शती ईसवी 8th Century CE के अंतिम दशकों में निर्मित

इतिहासकारों द्वारा इसे प्रारंभिक कार्तिकेयपुर (Kartikeypur) राजाओं के काल में आठवीं शती ईसवी के अंतिम दशकों में निर्मित हुआ माना जाता है। संभवतः गणपति नाग (Ganapati Nag) द्वारा उल्लेखित रुद्रमहालय मे निर्मित शिव मंदिर का किसी प्राकृतिक प्रकोप में नष्ट होने के उपरांत कार्तिकेयपुर नरेशों द्वारा इसका पुन:र्निर्मांण किया गया होगा।

अपनी वास्तुकला के आधार पर यह मध्य हिमाद्री शैली में त्रिरथ- विन्यास (रेखा लतिन शिखर शैली) का छत्र रेखा प्रसाद में चतुर्भुजाकार तल पर निर्मित है। मंदिर परिसर के प्रक्रिमा पथ में चंडी, चामुंडा, गणेश, हनुमान तथा सप्त मातृका (नौदुर्गा) के प्राचीन मंदिर भी है।

मंदिर के प्रक्रिमा पथ में ही भगवान शिव के सदा वसंतम हृदया रविंदम के स्वरूप को धरा पर परिलक्षित करती सदा पुष्पित रहने वाली कुंज की वह बेल भी है जिसे स्थानीय निवासी कल्पवृक्ष कहते हैं तथा जिसके बारे में केदारखंड में भी उल्लेख मिलता है

अन्यश्चय संप्रवक्ष्यमि चिन्हं तत्र सुरेश्वरी। एकस्तत्र पुष्पवृक्षो कालेपि पुष्पित:सदा

केदारखंड

इसके अतिरिक्त मंदिर परिसर से ही सटे हुए तीन चार सदी पूर्व निर्मित दो भवन कोठा (रावल निवास) तथा पहाड़ी परंपरागत तिवारी भी है। जो तत्कालीन पहाड़ी कला के बेजोड़ नमूने है।

यदि धार्मिक दृष्टि के साथ ही गोपीनाथ मंदिर की ऐतिहासिकता पर नजर डालें तो मंदिर के प्रांगण में स्थित लौह त्रिशूल अपनी धार्मिक आस्था के साथ ही इस पर उत्कीर्ण राजाओं की प्रशस्तियों के कारण उत्तराखंड के इतिहास के संदर्भ में कई काल खंडों की पौराणिक इतिहास की जानकारी को समेट हुए वर्तमान में उन्हें जानने का एक प्रमुख स्रोत भी है।

केदार खण्ड पुराण मे इसकी धार्मिक महत्ता का वर्णन करते हुए इसको एक आश्चर्यप्रद त्रिशूल बताते हुए कहा गया है कि, यह बल पूर्वक दोनों हाथों से हिलाने पर भी नहीं हिलता लेकिन भक्तिपूर्वक कनिष्का अंगुली से हिलाने पर कंपायमान हो जाता है।

त्रिशूलं मामकं तत्र चिन्हमाश्चर्य रूपकम्।
ओजसा चेच्यालयते तन्नही कंपति कहिर्न्वित्।
कनिष्ठ्या तु सत्स्पृष्टम भक्त्या तत्कम्पे मुहु:।

केदारखण्ड

मंदिर प्रागंण में पत्थर के एक चबूतरे के आधार स्तंभ पर स्थापित इस 16 फिट ऊँचे लौह त्रिशूल (जिसे कतिपय विद्वानों द्वारा अष्टधातु से निर्मित होना तथा इसके तीन फीट हिस्से का क्षतिग्रस्त होना भी बताया जाता है।) जिसके मध्य में एक परशु भी है। त्रिशूल को उसके आकार बनावट एवं उसमें उत्कीर्ण लेखों के आधार पर हम तीन भागों, ऊपरी फलक जो की त्रिशूल का मुख भाग है। मध्य फलक जो परशु तथा ऊपरी फलक (मुख भाग) के मध्य का भाग जिस पर नाग वंशीय गणपति नाग का प्रशस्ति लेख अंकित है।और परशु के नीचे और आधारस्तंभ के मध्य का भाग जिस पर अशोक चल्ल का प्रशस्ति लेख है, को आधार फलक में विभक्त कर सकते है।

ब्राह्मि लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख – Brahmi Script inscriptions on the Gopinath Trident

त्रिशूल के आधार फलक पर नाग वंश के प्रतापी शासक गणपति नाग का दक्षिणी ब्राह्मि लिपि में उत्कीर्ण अभिलेख है। जिसमें गणपति नाग के अतिरिक्त तीन अन्य नाग राजाओं स्कंद नाग, विभु नाग, अंशु नाग के नामों का भी उल्लेख है। अभिलेख से ही यह जानकारी भी मिलती हैं की “गणपति नाग ने अपने द्वितीय राजवर्ष में (संभावत:अपने राज्या रोहण के द्वितीय वर्ष) रुद्रमहालय के समक्ष शक्ति (त्रिशूल) की स्थापना की। इतिहास कारों द्वारा उक्त अभिलेख के अंकन का काल छटविं (600ई.) शताब्दी होना बताया गया है। उक्त अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि गोपीनाथ के विशाल मंदिर प्रांगण में त्रिशूल जिसे उत्कीर्ण लेख में शक्ति स्तंभ कहा गया है, की स्थापना 6वीं से 7वीं शताब्दी के दौरान नागवंशीय शासक गणपति नाग द्वारा ही की गयी होगी।

इसी प्रकार त्रिशूल के ऊपरी फलक पर नेपाल के मल्ल राजा अशोक चल्ल का 1191 ई. का निम्नवत लेख भी उत्कीर्ण है।

कृत्वां दिग्विजयम् महालय महादेवालय संस्था मिमाम्,
राज्ये श्री मद्शोकचल्ल नृपतिः स्तंभचच्छ लानीतवान।।
पश्चाच्च प्रतिरोप्य तत्र विजयस्तंभ प्रतिष्ठा मगाद।
उत्खात प्रतिरोपणम हिमहतायुक्तम नातानां पुनः
।।

लौह त्रिशूल

जिसमें अशोकचल्ल (Ashok Chall) द्वारा इस क्षेत्र (गढ़वाल) में विजय का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अशोक चल्ल का यहाँ से एक शिलापट लेख भी मिला है। जिसमें उसके द्वारा यहाँ पर जिर्णोद्वार कार्य करने तथा एक सम्मेलन बुलाने की जानकारी मिलती है। इसमें इसे परम भट्टारक, महायानी बौद्ध बताते हुए उल्लेख मिलता है कि केदार क्षेत्र की विजय के उपरांत उसके द्वारा यहाँ पर भूमि दान तथा भोज दिये जाने के साथ ही यही पर अपने अधीनस्थ राजाओं को जिसे उसने युद्ध में परास्त किया था का सम्मेलन बुलकार विजित प्रदेश उन्हें लौटा दिये थे।

अशोक चल्ल (1191-1209) पश्चमी नेपाल के डोटी (Doti) राजवंश में जयभद्रमल्ल की पाँचवीं पीढी का शासक था। उसके द्वारा उत्कीर्ण इस लेख से मल्लों के इस क्षेत्र को विजित कर शासन करने की जानकारी मिलती है। अशोक चल्ल ने कत्युरियों (Katyuri) को पराजित कर अपने शासन के दौरन इस वंश का राज्य विस्तार मानस भूमि तथा केदारभूमि (गढ़वाल, कुमांऊ) तक किया था। अशोक चल्ल के बारे में यह जानकारी भी मिलती हैं कि वह एक उच्चकोटि का सेनानायक होने के साथ ही कवि और नृत्यवेता भी था। उसके द्वारा नाट्यशात्र् पर नृत्याध्याय नामक ग्रंथ की भी रचना की गई थी। हालांकि उसकी उत्तराखंड विजय के संदर्भ में तो एक आक्रांता ही कहा जायेगा।

उक्त दोनों लेख जो वर्तमान समय में अप्राप्य है तथा जिन्हे प्रशस्ति लेख कहना ज्यादा उचित होगा में गणपति नाग के लेख से जो कि नाग वंश का सर्वाधिक प्रतापी राजा था, से 600 ई. से 700 ई. के कालक्रम में गढ़वाल में नागों द्वारा शासन किये जाने की जानकारी प्राप्त होती है। इस वंश के पत्तन के कारणो तथा उनकी शासन ब्यवस्था के बारे में स्रोतों के अभाव के कारण और अधिक जानकारी नही मिल पायी है। जिस कारण इस विषय पर अनुमान लगा पाना कठिन है। गढवाल में इनकी उपस्थिति की जानकारी का अभी तक यह त्रिशूल अभिलेख ही एक मात्र स्रोत है। जम्मू से गणपति नाग के एक अन्य अभिलेख मिलने से इस बात की पुष्टि होती है कि इनके साम्राज्य का विस्तार जम्मू कश्मीर तक था।

गोपेश्वर चतुर्थ केदार का गद्दी स्थल होने के कारण प्राचीन काल से ही धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण तो रहा ही है। त्रिशूल पर अंकित अभिलेखों से जैसे गणपति नाग द्वारा यहाँ पर शक्ति स्तंभ स्थापित करने की बात हो या अशोक चल्ल द्वारा उससे पराजित राजाओं का यहाँ पर सम्मेलन आयोजित करवाने का उल्लेख हो आदि से स्पष्ट हो जाता है कि यह उस दौर (6 वीं 7वीं शताब्दी) में राजनैतिक, आर्थिक गतिविधि के साथ ही रणनीतिक दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा होगा। यदि उस काल खंड के समग्र इतिहास पर दृष्टि डाले तो उस दौर में शक्ति शाली शासकों द्वारा चाहे वो विशाल मंदिरों का निर्माण हो या अभिलेख उत्कीर्ण कराने का विषय हो तथा कोई राजनैतिक आयोजन करवाना हो आदि को हमेशा धार्मिक, सामरिक व आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों पर ही किये जाने के अधिक प्रमाण मिलते हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि यह गुप्तोत्तर काल से लेकर मध्य काल तक गोपेश्वर राजनैतिक घटनाओं के अतिरिक्त एक जाग्रत तीर्थ के रूप में प्रमुख धार्मिक केंद्र स्थल भी रहा है।

वर्तमान मे यह लौह त्रिशूल और भगवान गोपीनाथ का विशाल मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा उत्तराखंड के 42 स्मारकों में केंद्रीय स्मारकों की सूची में तथा भारत के 100 महत्वपूर्ण स्मारकों के साथ आदर्श स्मारकों की सूची में शामिल है।


Gopeshwar, Gopinath Temple, Rudranath Temple, Kedar Khand Puran, Skand Puran, Kartikeypur, Ganapati Nag, Ashok Chall, Doti, Katyuri, Brahmi inscriptions.

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments