Wednesday, March 19, 2025
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Farmers are also trapped in mental illness. आत्महत्याओं के साथ मानसिक बीमारियों में भी फंसा है, किसान

Along with suicides, farmers are also trapped in mental illness.

🖎 पार्थ एम.एन.

जुलाई माह के पहले सप्ताह में मैंने मराठवाड़ा के कृषि प्रधान जिले में करीब दो हजार किलोमीटर की यात्रा की थी। अधिकांश किसान भीषण गर्मी में बोनी कर वर्षा की राह देख रहे थे और उसकी देरी किसानों को बेचैन कर रही थी। फसल बोवाई का ये तो फक्त दूसरा माह है और अभी से महाराष्ट्र के अधिकांश क्षेत्रों से किसानों को हो रहे नुकसान की कहानियाँ सुनाई दे रही हैं। बदलता मौसम विगत दस सालों से बेमौसम वर्षा दे रहा है और उससे ग्रामीण महाराष्ट्र के किसानों की मानसिक बीमारी भी बढ़ रही है, लेकिन राज्य में हो रही राजनैतिक उठापटक के कारण ‘टाइम बम’ कभी भी विस्फोटक हो सकता है इसकी किसी को चिंता नहीं है.

भारत में वर्ष 2021 में ग्यारह हजार किसानों ने आत्महत्या की थी और उनमें 13 प्रतिशत किसान महाराष्ट्र के थे। ये जानकारी ‘एनसीआरबी’ (नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो) ने दी है, लेकिन ये आंकड़े केवल मरने वालों के हैं। मानसिक रोग में गिरफ्त किसानों की संख्या इससे ज्यादा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ की जानकारी के अनुसार हर आत्महत्या करने वाले के पीछे कम-से-कम 20 लोग आत्महत्या करने के इच्छुक रहते हैं। ये सब देखकर आश्चर्य होता है कि इतनी गंभीर समस्या के प्रति हम आँख क्यों बंद किए हुए हैं?


वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ ने एक बार बताया था कि उन्होंने वर्ष 1980 में पत्रकारिता प्रारंभ की थी। उस समय हर मीडिया संस्थान में श्रमिक और खेत मजदूरों पर लिखने वाले पत्रकार रहा करते थे। धीरे-धीरे फलते-फूलते प्रसार माध्यमों से ये दोनों स्थान गायब हो गए और मीडिया में भारत की 70 प्रतिशत आबादी पर ध्यान देने वाला कोई रहा ही नहीं। पी. साईंनाथ अंग्रेजी के ‘द हिन्दू’ अखबार के एक मात्र ग्रामीण पत्रकार थे और ‘द हिन्दू’ ग्रामीण पत्रकारिता पर ध्यान केन्द्रित करने वाला एकमात्र अखबार था।


आंकड़े देखे जाऐं तो साईंनाथ की बातें तथ्यपरक लगती हैं। ‘सीएमएस’ (सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज, दिल्ली) की जानकारी के अनुसार प्रमुख अखबारों के पहले पन्ने पर 66 प्रतिशत खबरें दिल्ली से जुड़ी होती हैं। ‘सीएमएस’ ने वर्ष 2014-2015 में दिल्ली में किए अध्ययन में बताया कि प्रथम पृष्ठ पर जो खबरें आती हैं उनमें मात्र 0.24 प्रतिशत खबरें ग्रामीण भारत की होती हैं। बाद में तो हालात और गंभीर होते गए।


इसका परिणाम यह हुआ कि प्रमुख माध्यमों पर पल रही हमारी पीढ़ी को अपने आसपास क्या घटित हो रहा है इसकी जानकारी ही नहीं है। ‘पारी’ (पीपल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडिया) ‘गाँव कनेक्शन’ और ‘खबर लहरिया’ जैसे वेबसाइट्स और पोर्टल में काम कर रहे युवा पत्रकार ग्रामीण भारत की विविधता, सौंदर्य और कार्य रेखांकित करने का अथक परिश्रम कर रहे हैं।


ग्रामीण भारत के प्रति हमारी उदासीनता का परिणाम यह है कि वर्तमान की सबसे चिंताजनक बात, मौसम बदलाव की रिपोर्टिंग मीडिया से गायब है। मौसम विपदा के कारण तापमान और वर्षा में बदलाव आ रहा है। उस कारण सिंचित खेती की उत्पादन क्षमता 15 से 18 प्रतिशत कम हो गई है। ये ‘ओईसीडी’ ने सन् 2017-18 में किए अध्ययन में बताया है। शुष्क खेती का उत्पादन 25 प्रतिशत तक कम होने की आशंका भी यह अध्ययन बता रहा है। किसानों के मानसिक रोगों के बढ़ने का ये भी कारण है।


इस वर्ष के प्रारंभ में मैंने ‘पारी’ के लिए महाराष्ट्र में किसानों के बढ़ते मानसिक रोगों पर अध्ययन करने का सोचा तब मेरी समझ में आया कि मीडिया ही नहीं शासन भी इस अध्ययन के प्रति उदासीन है। स्थानीय स्तर पर ऐसे मानसिक रोग के उपचार हेतु मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (डीएमएचपी-डिस्ट्रिक्ट मेंटल हेल्थ प्रोग्राम) कार्यरत है। मानसिक रोगियों की खोज कर उन तक पहुँचना और फिर उनके शिविर लगाकर जागरूक करना इस विभाग के अधिकारी की जिम्मेदारी है।


वर्ष 2018-19 में महाराष्ट्र सरकार ने 350 से अधिक तहसीलों के 43 हजार गावों में इससे संदर्भित शिविर आयोजित किये, तब समझ में आया कि कुल 36 हजार यानी हर शिविर में कम-से-कम 15 मरीज निकले। हर किसान का रोग कम-ज्यादा था। उसके बाद के वर्षों में 2954 शिविर आयोजित किए गए। उस समय 39366 मानसिक रोगी मिले।


मार्च 2020 में कोविड महामारी के कारण रोगियों की संख्या में भारी वृद्धि हुई। 2020-2021 में शिविर घटकर 1392 रह गए, लेकिन मानसिक रोगी 46719 निकले, यानी पहले के मुकाबले दुगने। वर्ष 2021-22 में शिविर घटकर 417 रह गए, लेकिन रोगी 22747 रह, यानी 545 प्रति शिविर मतलब मानसिक रोगियों की संख्या 260 प्रतिशत बढ़ी।


मेरी यात्रा में इस प्रकार के शिविर आयोजित होते हैं। यह जानकारी भी किसानों को नहीं थी। इन शिविरों के लिए राज्य शासन ने 158 करोड़ रूपये का प्रावधान रखा था, मगर महाराष्ट्र शासन ने केवल 8.5 करोड़ यानी 5.5 प्रतिशत राशि ही खर्च की।


महाराष्ट्र के हर गांव में यदि इस प्रकार के शिविर आयोजित किये जाएं तो मानसिक रोगी कितने होंगे इसकी कल्पना से ही मैं थर्रा जाता हूँ। पीडित परिवार को इन शिविरों की जानकारी मिली तो भी उन्हें फायदा नहीं मिल सकता। मानसिक स्वास्थ्य पर काम करने वाले विशेषज्ञों से मैंने चर्चा की तो उन्होंने बताया कि केवल एक बार शिविर लेकर फायदा नहीं। उन रोगियों को बार-बार बुलाया जाना चाहिए।


किसानों की हर आत्महत्या बताती है कि हमारी सामाजिक व्यवस्था कितनी असफल है। किसान तुरंत आत्महत्या नहीं करता, कईं दिनों का मानसिक तनाव इसका कारण होता है। मौसम परिवर्तन की विपदा के कारण ये रोग बढ़ते जा रहे हैं और किसानों के मानसिक तनाव भी, मगर शासन और मीडिया की उदासीनता के कारण किसान को प्रतिकूल वातावरण में जीना पड़ता है। इस पर किसी का ध्यान नहीं है, यही त्रासदी है। (सप्रेस) (अनुवाद – अरुण डिके)

श्री पार्थ एम.एन.स्वतंत्र लेखक हैं।

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