Wednesday, March 19, 2025
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“सा विद्या या विमुक्तये” (विद्या वही जो मुक्त करें)

sa vidya ya vimuktaye" (Knowledge is that which liberates)


— रमेश चंद शर्मा-

नई दिल्ली

विद्या में समग्रता, ब्रह्माण्ड, विविधता, अनेकता में एकता का भाव समाया हुआ है। एक को साधे सब सधे की बात है। विद्या सहजता, सरलता, स्पष्टता, सादगी, सच , स्नेह, व्यापकता की ओर ले जाती है। इससे शुभ, लाभ, मंगल, कल्याण, साधना, संकल्प, निष्ठा का विकास होता है। विद्या जन्म के साथ भी मिलती है। इसको सही दिशा, अवसर, मौका, माहौल, समझ, सोच, विचार मिल जाए, सही ढंग से अंकुरित हो जाए तो विद्या सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय की राह आसान कर देती है। दुनिया में विद्या प्राप्त करने वाले असंख्य लोग हैं जो अशिक्षित, अनपढ़ रहते हुए अद्भुत क्षमता के धनी रहे हैं। इनके अनेक उदाहरण हमारे समक्ष उपस्थित है।

शिक्षा जो साक्षरता, पुस्तक, जानकारी, सूचना तक सीमित रह जाती है। ऐसी शिक्षा खंड, पिंड, सीमित, संकुचित मानसिकता की ओर धकेलती है। लाभ, लोभ, शोषण, लूट के रास्ते खोलती है।

भाव को समझने के लिए विद्या और शिक्षा शब्द का प्रयोग किया गया लगता है। कुछ जगह शिक्षा, सबक, सीख, विद्या, ज्ञान आदि शब्दों को पर्यायवाची भी माना जाता है।

विद्या का मनुष्य जीवन में बहुत बड़ा योगदान, महत्त्व है। विद्या मनुष्य जीवन में विकास के द्वार खोलती है। एक सार्थक जीवन जीने का माध्यम बनती है। मनुष्य के मुक्तता के द्वार खोलती है। यह विद्या आखिर है क्या? इसे जानने, समझने, पहचानने, अपनाने की आवश्यकता है। आओ इस विद्या और शिक्षा को जानने का प्रयास करते हैं।

अक्षर ज्ञान, साक्षरता, लिखना पढ़ना तो शिक्षा का अंग है। विद्या का वास्तविक सही स्वरुप तो बहुत ही वृहद, विस्तृत है। शिक्षा पर पुरातन काल से तरह-तरह से काम किया जा रहा है, होते रहे हैं। इसके विभिन्न स्वरुप, प्रकार, परिभाषा प्रकट हुए। अनेक प्रकार के प्रयोग, विचार होते रहे हैं। घर, समाज, आश्रम, गुरुकुल, विद्यालय, पाठशाला, शिक्षण संस्थानों के द्वारा शिक्षा मिलती रही। जिनकी व्यवस्था, प्रबंधन, प्रकार भी समय के साथ साथ बनते बिगड़ते रहे। मुफ्त से लेकर मंहगी, मुक्त से लेकर बंधन, सामान्य से लेकर विशेष, खुले आसमान से लेकर बंद भवन तक शिक्षा ने अनेक उतार चढ़ाव, प्रयोग देखें है। यह क्रम अभी भी जारी है और आगे भी जारी रहेगा। इसलिए संवाद, चर्चा, गोष्ठी, सम्मेलन, संगिति, कार्यशाला, प्रयोग, विचार मंथन, चिंतन मनन की सतत आवश्यकता है।

विद्या का मतलब है मनुष्य का मानसिक, शारीरिक, भौतिक, सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, आर्थिक सभी प्रकार का विकास यानी समग्र विकास।

जीने की कला का अभ्यास, आचरण, पालन ही विद्या है। जिससे जीवन में विनम्रता, चिंतन, मनन, श्रम, सादगी, सहजता, सरलता, निर्भयता, निष्पक्षता, कला, संगीत, रोजगार, साहित्य, सामूहिकता, सामंजस्य, सौह्रार्द, स्वावलंबन सधे वह विद्या है। संक्षेप में कहें तो हाथ, हृदय, मस्तिष्क का विकास जिससे संभव हो वह विद्या है।

सीखना सिखाना, पढ़ना पढ़ाना, तालीम लेना देना, सूचना का आदान प्रदान, अभ्यास, दक्षता, निपुणता, उपदेश, साधना, मंत्र,

तप, जप, सबक, शासन, न्याय, समता, संयम, श्रम, स्वानुशासन, करूणा, दंड, विनय, शिष्टता, विनम्रता, विज्ञान, कला, प्रयोग, ज्ञान, साहित्य, सृजनशीलता, रचना, कौशल विद्या के अंग है। विद्या जन्म से मृत्यु तक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। विद्या क्षेत्र, समाज, देश, प्रकृति की जरूरत के अनुसार अपनी पगडंडी, राह तलाश लेने की क्षमता, कुशलता रखती है।

श्रम निष्ठा द्वारा स्वास्थ्य, उद्योग द्वारा स्वावलंबन, कर्म द्वारा सत्य निष्ठा और वैज्ञानिक वृत्ति, कार्य द्वारा व्यवस्था तथा स्वच्छता का अभ्यास, सामूहिक जीवन द्वारा सहिष्णुता, सहयोग द्वारा सेवा वृत्ति, कार्य कुशलता द्वारा ज्ञान पिपासा की पूर्ति और स्वाध्याय, निर्माण द्वारा कल्पना, मूल प्रवृतियों का शोधन, कर्त्तव्य निष्ठा आदि मानवीय गुणों से ही विद्या की बुनियाद मजबूत होती है।
स्वच्छ और स्वस्थ जीवन, सामाजिक शिक्षण और समाज सेवा, मूल उद्योग और स्वावलंबन, सांस्कृतिक और कलात्मक जीवन, तत्संबंधी सिद्धांत, ज्ञान की प्राप्ति एवं उसका अभ्यास भी विद्या के अंग हैं।

आत्म संरक्षण, जीविकोपार्जन, पालन पोषण एवं वंश वृद्धि, नागरिकता की शिक्षा, अवकाश का सदुपयोग यह पांच तत्त्व विद्या का अभिन्न भाग है।

अंग्रेजी विद्वान हेक्सले का कहना है कि “उस आदमी को सच्ची शिक्षा मिली है। जिसका शरीर इतना सधा हुआ है कि उसके काबू में रह सके और आराम व आसानी के साथ उसका बताया हुआ काम करे। उस व्यक्ति को सच्ची शिक्षा मिली है, जिसकी बुद्धि शुद्ध है, शांत है और न्यायदर्शी है। उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसका मन कुदरत के कानूनों से भरा है और जिसकी इन्द्रियां अपने वश में है, जिसकी अन्तर्वृति विशुद्ध है और जो नीच आचरण को धिक्कारता है तथा दूसरों को अपना जैसा समझता है। ऐसा आदमी सचमुच शिक्षा पाया हुआ माना जाता है, क्योंकि वह कुदरत के नियमों पर चलता है। कुदरत उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह भी कुदरत का अच्छा उपयोग करेगा।” यहां मुझे लगता है कि शिक्षा शब्द जिसे हम विद्या कह रहे है उस भाव में ही प्रयोग किया गया है।

यह सच्चाई है कि सदाचारी, नैतिक, इन्द्रियों को वश में रखने वाला विद्या ग्रहण करेगा तो उसका सदुपयोग कर सकता है। ऐसे आधार पर बनी इमारत ही टिक सकती है। वही जनहित में काम कर सकता है। सबके भले में ही अपना भला देख सकता है। अच्छा सफल नागरिक सिद्ध हो सकता है। मानवता, प्रकृति, मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं को समझकर आगे बढ़ सकता है।
ऐसी कहावतें बहुत प्रचलित है कि यथा राजा तथा प्रजा, यथा गुरु तथा शिष्य, यथा जनक (माता पिता) तथा संतान, यथा भाषाक तथा भाषा अर्थात जैसा बोलने वाला वैसी बोली। संगत, सत्संग, संगीत, साथ, सोच, समझ, माहौल, वातावरण पर विद्या का बड़ा प्रभाव पड़ता है।

शिक्षा मातृभाषा में हो, शिक्षा मुफ्त हो, शिक्षा लोगों की जरूरतों को पूरा करती हो, शिक्षा स्वावलंबी हो, स्वावलंबी बनाने का काम करे, श्रम शिक्षा का अभिन्न अंग रहे, शिक्षा काम-धंधे, उत्पादन, कृषि, उद्योग से जुड़ी हो, शिक्षा की व्यवस्था पर जनता का अंकुश रहे, शिक्षा और व्यक्ति, परिवार, घर, समाज, देश की स्थिति के बीच आपस में मेल हो, शिक्षा समग्रता में हो। एकांगी अक्षर ज्ञान बहुत खतरनाक है। यह शिक्षा के लिए जरूरी है। विद्या की तो अपनी ही बोली, भाषा होती है, जिसको जो समझ आ जाए।

चिंतन मनन की स्पष्टता, अपने लक्ष्य, प्रेरणा को प्राप्त करने के लिए प्रभावी ढंग से कर्म करने की शक्ति, कुशलता सीखना शिक्षा और विद्या दोनों की जरूरत है।

गांधी जी ने भी शिक्षा के बारे में बहुत कुछ कहा, लिखा, प्रयोग किया है। बुनियादी शिक्षा, नई तालीम के प्रयोग काफी चर्चित रहे हैं। एक नई दिशा, सोच, समझ पैदा की है।

गांधी जी ने कहा कि “सार्थक शिक्षा वही है जो अच्छाई और बुराई में फर्क करना सिखाए। अच्छाई को आत्मसात करते हुए बुराई से बचने की राह दिखाए।”

“सच्चा प्रेम स्तुति से प्रकट नहीं होता, सेवा से प्रकट होता है। जिसके लिए आत्म शुद्धि चाहिए, वह सेवा की अनिवार्य शर्त है।”
“..हमारी स्वराज्य साधना के इस अमूल्य वर्ष में हमने अपनी आत्मशुद्धि की साधना पूरी की होगी तो भी काफी है।”
“जैसे स्वराज्य की कुंजी विद्यार्थियों की जेब में है, वैसे ही समाज सुधार और धर्म रक्षा की कुंजी भी वे अपनी जेब में लिए फिरते हैं। यह हो सकता है कि लापरवाही से अपनी जेब में पड़ी हुई अनमोल चीज का उन्हें पता न हो।….मैं आशा करता हूं कि विद्यार्थी अपनी शक्ति का अंदाज लगा लेंगे।”
“आत्म शुद्धि ही उत्तम सेवा है।”
“बिना हिम्मत की शिक्षा ऐसी ही है, जैसे मोम का पुतला। दिखने में सुंदर होते हुए भी किसी गरम चीज के जरा छू जाने से ही वह पिघल जाता है।”
“सादगी, दुःख सहने की शक्ति, भोग त्याग, एक निष्ठा, दृढ़ता, एकाग्रता, त्याग, नियम पालन और सतत जागृति का योगियों को शरमाने वाला नमूना दुनिया के सामने पेश करना।”
“जो असंभव दिखता हो, वह नवयुवक के साहस को बिल्कुल संभव मालूम होना चाहिए। असंभव को संभव बनाने में ही नवयुवक की वीरता और शोभा है।”

” सा विद्या या विमुक्तये” यानी विद्या वही है जो मुक्त करे- इस प्राचीन मंत्र को सिद्ध कर ले। विद्या यानी केवल आध्यात्मिक ज्ञान और मुक्ति यानी छुटकारा, इतना ही इसका अर्थ न करें। विद्या का अर्थ है लोकोपयोगी सारा ज्ञान प्राप्त करना और मुक्ति से मतलब है इस जीवन में सब तरह की गुलामी से छुटकारा पाना। गुलामी का अर्थ है किसी दूसरे के अधीन होना या अपने आप पैदा की हुई बनावटी जरूरतों का गुलाम बनना। इस प्रकार की मुक्ति जिसके द्वारा मिले वही असली शिक्षा है।”

शिक्षा जीवन भर चलती है। उसका प्रारंभ जन्म से ही हो जाता है और मृत्यु के साथ ही समाप्ति होती है। जाने अनजाने भी मनुष्य शिक्षा ग्रहण करता है।

बापू ने कहा है कि “सुसंस्कृत घर जैसी कोई पाठशाला नहीं और ईमानदार, सदाचारी माता पिता जैसे शिक्षक नहीं।”
गांधी जी के यह भाव विद्या को ही स्पष्ट करते हैं, चाहे शब्द शिक्षा का प्रयोग किया गया है।

संत बाबा विनोबा भावे जी के यह शब्द जय जगत की ऊंचाई पर पहुंचाते हैं।

“हम किसी भी देश विशेष के अभिमानी नहीं।
किसी भी धर्म विशेष के आग्रही नहीं।
किसी भी सम्प्रदाय व जाति विशेष में बद्ध नहीं।
विश्व मे उपलब्ध सद् विचारों के उद्यान में विहार करना, यह हमारा स्वाध्याय।
सद् विचारों को आत्मसात करना हमारा धर्म।
विविध विशेषताओं में सामंजस्य प्रस्थापित करना,विश्व वृत्ति का विकास करना,यह हमारी वैचारिक साधना।
हमारे जीवन का ध्येय है, हृदयों को जोड़ना।”

मुझे लगता है कि हमारी चर्चा को आगे बढ़ाने के लिए, समझने के लिए विद्या और शिक्षा शब्दों का प्रयोग किया गया है। हमें अब विद्या और शिक्षा शब्द पर बहस में नहीं पड़कर इनके भाव, आत्मा, सत को समझने, जानने की आवश्यकता है। आज के जमाने में जो पढ़ाई है वह विद्या की श्रेणी में नहीं आता है ऐसा लगता है।

– रमेश चंद शर्मा,
गांधी युवा बिरादरी, बा बापू 150

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