✍️विनय सेमवाल
हरिद्वार से चार-धामों की यात्रा के लिए आप जैंसे ही देवभूमि में प्रवेश करते हैं, हरिद्वार, ऋषिकेश से लेकर पूरे यात्रा मार्ग के प्रमुख स्टेशनों सहित हर धाम में बाबा काली कमली पंचायत क्षेत्र के नाम वाली धर्मशालाएं मिल जायेंगी ।
नाम से तो पता लग ही जाता है कि, इनका निर्माण किसने करवाया होगा। लेकिन कब व कैसे किया होगा? कौन थे बाबा काली कमली वाले? आदि प्रश्नों के उत्तर शायद कुछ ही लोग जानते होंगे।
बताते चलें आठहरवीं सदी के अंतिम दशकों के उस दौर में जब यहाँ एक व्यक्ति का पहुँचना ही अपने आप में चुनौती पूर्ण था। तब यहाँ की विषम तथा चूनौती पूर्ण भौगोलिक परिस्थिति में पैदल मार्गों में संसाधन जुटाकर यात्रियों की भोजन व्यवस्था हेतु जगह-जगह पर निशुल्क अन्नक्षेत्रों और रहने के लिए धर्मशालाओं का निर्माण करने जैसे दुष्कर कार्य को धरातल पर कर दिखाया था एक सिद्ध परोपकारी संत विशुद्धानंद महाराज ने जिसे आज आम जन-मानस बाबा काली कमली के नाम से जानता हैं।
तब से लेकर निरंतर आज तक ये धर्मशालाएं आम श्रद्धालुओं और संत महात्माओं का पसंदीदा ठौर बनी हुई हैं।
महारानी अहिल्या बाई होल्कर के बाद बाबा काली कमली ही वे पहले व्यक्ति थे जिन्होेंने व्यक्तिगत रूप से यात्रा की कठनाइयों पर गंभीरता से ध्यान दिया और अपने प्रयासों से उस काल खण्ड में मार्गों में सुविधाएं जुटाकर उत्तराखंड के इन दुर्गम तीर्थों की यात्रा को आम श्रद्धालुओं के लिये सुगम व सुलभ बनाया। जिससे हर वर्ष तीर्थ यात्रियों की संख्या में वृद्धि होती गयी।
आज से ठीक एक सौ तेतालिस वर्ष पूर्व इस दुर्गम क्षेत्र की विकट परिस्थितियों में तीर्थ यात्रियों को अपने स्तर से हर प्रकार की सुविधाएं प्रदान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ने वाले इस महान संत से जिसके तेज के आगे तब के धन्नासेठों ने नत् मस्तक होकर अपनी तिजोरियां खोल दी थी, के बारे में आज की पीढी बहुत ही कम जानती है। जानती भी है तो सिर्फ नाम भर।
जबकि यदि देखा जाय तो आदिगुरु पुज्यपाद शंकराचार्य के द्वारा स्थापित सनातन धर्म के इन तीर्थो तक आम सनातनी साधु संतों और धर्मावलंबियों की पहुँच सुलभ बनाने का कार्य बाबा काली कमली नें ही किया था। इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो शंकराचार्य के बाद निसंदेह स्वामी विशुद्धानंद जी काली कमली वाले बाबा ही देवभूमि के तीर्थ ऋषि हैं।
आरंभिक जीवन
बाबा काली कमली का जन्म संवत 1888 ई.(सन् 1831) को अविभाजित भारत के गुजराँवाला(अब पाकिस्तान) के जलालपुर तहसील के कोकना (किकना) गाँव में हुआ था। सन्यास ग्रहण करने से पूर्व इनका नाम बिसवा सिंह था। इनके पिता गाँव में ही मिठाई की दुकान चलाते थे और बड़ा भाई ब्रिटिश सरकार में बतौर पटवारी सरकारी मुलाजिम था।
बचपन से ही मनमौजी और फक्कड़ स्वभाव के बिसवा की पढ़ाई- लिखाई प्राथमिक स्तर तक ही हो पायी थी । जब ये सोलह वर्ष के हुए तो घरवालों ने यह सोचकर उनकी शादी कर दी कि, शादी के बाद जब जिम्मेदारियों का बोझ आ जायेगा तो घर गृहस्थी में मन रमने लगेगा।
समय यू ही आगे बड़ता रहा पर विसवा के फक्कड़पन मे कोई परिवर्तन नहीं आया। ऐसे में एक दिन पिता की मृत्यु के पश्चात भाई के सरकारी नौकरी में होने से दुकान का भार भी बिसवा के सिर पर आ गया। अपनी आदत और स्वभाव के चलते बिसवा का मन दुकान में नहीं रमा, जब भी कहीं सत्संग होता दुकान छोड़कर पहुँच जाता। जिसके कारण दुकान धीरे-धीरे घाटे में जाने लगी
बिसवा के जीवन में महत्वपूर्ण मोड आया उम्र के चौबीसवें पढ़ाव पर जब इनकी माता का देहांत हुआ और इन्हें अस्थि विसर्जन के लिए हरिद्वार आना पड़ा। ये एक माह तक यहीं साधु संतो के साथ रुके। एक माह साधु संतो के समागम और सत्संग का बिसवा के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
सन्यास ग्रहण
बिसवा से विशुद्धानंद।
बिसवा अब हरिद्वार से घर वापस लौटने पर पूरी तरह से बदल चुका था। मन मष्तिक में वैराग्य की भावना इतनी प्रबल हो चुकी थी कि, गृहस्थी में इनका मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। ऐसें में एक दिन बड़े भाई से सन्यास लेने की इच्छा प्रकट करते हुए सन्यास ग्रहण करने की आज्ञा माँगी लेकिन भाई ने घर ग्रहस्थी को सही ढंग से संभालने की हिदायत देते हुए डांट लगाई ।
सन्यास लेने का दृढ़ निश्चय कर चुके बिसवा पर भाई की हिदायत और डाँट का भी कोई असर नहीं पड़ा और एक दिन बिना बताये घर से निकलकर काशी पहुँच गया।
काशी में इनकी मुलाकात नेपाली खप्पर वाले सन्यासी स्वामी शंकरानंद से हुई और उनका शिष्य बन गये । स्वामी शंकरानंद ने इन्हें शैव धर्म के भिल्लंगण संप्रदाय में दीक्षित कर नया नाम विशुद्धानंद दिया।
इधर बिसवा सन्यास ग्रहण कर विशुद्धानंद बन गये थे तो उधर बड़े भाई भी इनकी खोज खबर लेते हुए काशी पहुँच गये। भाई ने घर वापसी के लिए इनसे कई मिन्नतें की पर विशुद्धानंद बन चुके बिसवा पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ा। अंततः गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य मानकर घर वापस जाने को तैयार हुए।
गृह त्याग तथा बद्रीनाथ में तपस्या
गुरु की आज्ञा से घर वापस तो आ गये लेकिन अब घर पर बिसवा से सन्यासी बन चुके विशुद्धानंद के लिए एक पल भी टिके रहना मुमकिन न था। जैसे-तैसे तीन वर्ष घर में काटे और एक दिन विशुद्धानंद तीन बच्चों तथा पत्नी को छोड़कर घर से देवभूमि के तीर्थों की यात्रा पर निकल पड़े। सभी तीर्थों की यात्रा के उपरांत ये श्री बद्रीनाथ धाम में पहुँच कर नारायण पर्वत पर तपस्या करने लगे।
कहा जाता है कि, तपस्या के दौरान भगवान श्री बद्रीनाथ जी ने इन्हें दर्शन देते हुए यात्रियों की सेवा करने का आदेश दिया था । यात्रा मार्ग में आने वाले कष्टों से ये परिचित ही थे। इन्होंने स्वयं देखा था कि किस तरह मार्ग में बिना ठौर, भोजन और बीमार पड़ने पर उचित इलाज और दवा के अभाव में कई श्रद्धालु काल कल्वित हो जाते हैं।
श्री बद्रीनाथ जी की आज्ञा का पालन करते हुए स्वामी विशुद्धानंद यात्रा में श्रद्धालुओं को कोई कष्ट न हो इसके लिये सुविधाएं जुटाने के प्रयासों में जुट गए । सेवा कार्यों को अमली जामा पहनाने के लिए ये बद्रीनाथ से सीधा काशी, गुजरात, कलकत्ता और मारवाड की यात्रा पर निकल पड़े।
किवदंति है कि, जब मारवाड़ी धनिकों ने इनकी बातों पर ध्यान नही दिया तो ये फूटे हुए घड़े में दहकते कोयलों को नंगे सिर पर रखकर बाजार में निकल पड़े। बाबा के चमत्कार को देखकर हतप्रभ व्यापारी उनके चरणों में लोट गये। बाबा के चरणों में नतमस्तक हुए व्यापारियों ने मिलकर उन्हें 200 रु मासिक सहायता प्रदान करने का वचन दिया ।
इस प्रकार बाबा ने सेवा कार्य की शुरुआत संव.1937 (सन्1880) में ऋषिकेश से एक वृक्ष के तले प्याऊ और उसके कुछ समय पश्चाद् अन्नक्षेत्र लगाकर करते हुए धीरे-धीरे कुछ ही वर्षों में उसका विस्तार संपूर्ण यात्रा मार्ग के साथ ही सभी धामों में निशुल्क अन्नक्षेत्रों सहित धर्मशालाओं का निर्माण कर किया ।
बाबा की ही आज्ञा से सेठ सूरजमल तुल्यस्यान ने हरिद्वार में एक बड़ी धर्मशाला के साथ ही पचास हजार रुपये की लागत से रस्सियों से बने हुए लक्ष्मण झूले के पुराने पुल को पक्का किया था।
माँ अन्नपूर्णा के इस परम भक्त पर माँ शारदा की भी असीमित कृपा थी। प्राथमिक स्तर तक पढ़े बाबा ने ‘पक्षपातरहित अनुभव प्रकाश‘ नामक ग्रंथ की भी रचना की थी।
नौ वर्षों तक साधु संतों, तीर्थ यात्रियों तथा श्रद्धालुओं की सेवा करने के उपरांत सं.1953 (सन् 1896) में 65 वर्ष की उम्र में सेवा कार्यों का भार अपने शिष्य स्वामी रामनाथ को सौपकर बाबा स्वयं गोमुख की ओर चले गये।
इनके देवलोक गमन के विषय में कतिपय जगहों पर यह उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग माघी पूर्णिमा के दिन काशी में किया था।
कैसे पड़ा काली कमली नाम
स्वामी विशुद्धानंद भिल्लांगण संप्रदाय के शैव सन्यासी थे। इस संप्रदाय का मानना है कि भगवान शिव ने देवी अन्नपूर्णा को प्रसन्न करने के लिए काली कमली धारण की थी। इसीलिये इस संप्रदाय के सन्यासी भी अपने संप्रदाय के चिह्न स्वरूप काली कमली धारण करते हैं । इस संप्रदाय में इसका बड़ा महत्व है। बाबा भी अपने संप्रदाय के चिह्न स्वरूप हर वक्त काली कमली धारण किये हुए रहते थे। हर वक्त काली कमली में रहने पर इनका नाम काली कमली पडा।
बाबा काली कमली के बाद सेवा कार्य
स्वामी रामनाथजी महाराज जिन्हें भी काली कमली के नाम से जाना जाता है ने बाबा के बाद सेवा कार्यों को बखूबी विस्तार दिया। इनके बाद स्वामी मनिराम ने उत्तर दायित्व संभालते हुए, सेवा कार्य व्यवस्थित ढंग तथा सुचारु रूप से चले इस हेतु इन्होंने 1928 में ‘बाबा काली कमली पंचायत क्षेत्र समिति’ नाम से एक समिति बनाकर इसको पंजीकृत करा दिया। प्रबंधकारिणी के प्रारंभिक सदस्यों में महामना पं. मदन मोहन मालवीय, राय बहादुर गोयनका जैसे उस समय के आदि कई महापुरुष थे। वर्तमान में भी इसका प्रबंधन वही बाबा काली कमली पंचायत क्षेत्र समिति देखती है। इसका प्रधान कार्यालय ऋषिकेश में है।
Baba Kalikamli