Monday, April 28, 2025
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ढोल, दमों | ” ढ़ोल दमों देवभूमि की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक थाती”

Dhol Damo, the cultural and spiritual foundation of Devbhoomi Uttarakhand

विनय सेमवाल

श्री गोपीनाथ मंदिर (Gopinath Temple, Gopeshwar) प्रांगण में प्रति दिन भाई चंद्रू और हेमंत को ढोल, दमों की ताल पर नौबत बजाते हुए देखते ही द्वारिका प्रसाद महेश्वरी जी की कविता की ये पंक्तियां:- “यदि होता किन्नर नरेश मैं ,,,,,,,,,,,,,। प्रतिदिन नौबत बजती रहती संध्या और सबेरे” याद आ जाती हैं। पहले अपने पिता गुलाब भाई जी के साथ और अब अपने बच्चों के साथ भगवान शिव की पूजा के लिए सुबह शाम ढोल-दमाऊं की थाप उनकी जीवनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन गया है।

इन भाईयों की तरह सैकड़ों लोक कलाकार (folk artists) अलग अलग गांवों और मंदिरों में भगवान की अराधना में लीन हैं। समय के साथ इन लोक कलाकारों की जीविका की स्थिति में अपेक्षाकृत सुधार नहीं हो पाया है। गोपेश्वर के इन लोक कलाकारों की यह स्थिति को देखकर कष्ट भी होता है। ये शहर में आजीविका की विपरीत परिस्थितियों में भी आज के दौर में हमारी इस बहुमुल्य सांस्कृतिक और आध्यात्मिक थाती को जीवित रखे हुए हैं।

ढ़ोल और दमों वाद्य, यहाँ की लोक परंपरा के अटूट अंग है। इन्ही के इर्द गिर्द, यहाँ की संपूर्ण लोक-संस्कृति तथा परंपरा घूमते हुए इनमें इस तरह समायी हुई है, कि इसे देवभूमि में देवताओं से सीधे संवाद स्थापित करने का जरिया भी माना जाता है।

उत्तराखंड की लोकसंस्कृति में आध्यात्मिक महत्व के ये दो ही ऐसे लोक वाद्य है, जिनके बिना यहाँ का कोई भी मांगलिक और शुभ कार्य सम्पन्न नहीं होते। चाहे विवाह, मुंडन, आदि मांगलिक कार्य हो या देव यात्रा, देव नृत्य यथा मंडाणं, पांडव नृत्य, जागर, कोई भी अन्य धार्मिक कार्य यहाँ तक कि जब मृत्यु शोक होता है तो कहा जाता है की अमुख परिवार का अबाजू है। श्राद्ध के बाद ढोल बजने के उपरांत ही अमुख परिवार में शुभ कार्यो के आयोजन का श्री गणेश होता है। इस प्रकार देखा जाय तो ये वाद्य हमारी संस्कृति की आत्मा है।

ढोल और दमों की तालों का संपूर्ण दर्शन ढोल सागर में समाया है।जो परंपरानुसार श्रुति ज्ञान द्वारा अनवरत एक पीढी से दूसरी पीढी तक चला आ रहा है।

ढोल सागर की बात की जाय तो इसके मूर्धन्य विद्वानों के अनुसार यह मूलतः एक काब्यात्मक शैली मे संस्कृत, हिंदी तथा गढ़वाली बोली में श्लोको एवं बोलियों के रूप में संकलित मौखिक ग्रंथ है। कई विशेषज्ञों के अनुसार यह एक शब्द सागर शास्त्र भी हैं। इसकी उत्पति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है । कई विद्वान इसे नाथ पंथी साहित्य मानते हुए सातवीं से बाहरवी शताब्दी के मध्य सिद्धों द्वारा दी गई सौगात तो कई आदिग्रंथ मानते हैं। संभवतः यह विधा नाथ संप्रदाय के दौर में परिस्कृत हुई होगी।

ढोल सागर के अनुसार कहा जाता हैं कि सर्वप्रथम भगवान शिव ने माता पार्वती को ढोल सागर सुनाया था। जैसा कि संगीत शास्त्रों में भी भगवान शिव को ही ताल का सृजन कर्ता बताते हुए कहा गया है कि उनके तांडव नृत्य से ‘त’ तथा माता पार्वती के लास्य नृत्य से ‘ल’ शब्द की ब्युत्पति से ताल शब्द की उत्पति बताते हुए कहा गया है।

तकारः शंकरः प्रोक्तो लकारः पार्वती स्मृता।
शिव शक्ति समायोगात ताल इत्यभिदीयते।

इसी प्रकार गीत वाद्य और नृत्य के मेल को ही संगीत की संपूर्णता बताते हुए कहा गया है।

गीताम् वाद्य नृत्यं त्रयं संगीत मुच्यते’।

ढोल सागर में ढोल कि उत्पति के संबंध में कहा गया है।

ढोल्या पार्वती ने बटोल्या, विष्णुनारायण जी ने गड़ाया, ।
बारे जुग ढोल मुंडाया, ब्रह्मा जी ने ऊपरी कंदोटी चढ़ाया।।

ढोल सागर के ज्ञान का मनुष्यों तक पहुँचने के विषय में उल्लेख मिलता है कि एक बार शिव पार्वती के मध्य ढोल सागर पर संवाद चल रहा था उसी दौरान एक ब्यक्ति द्वारा सुने जाने उपरांत यह ज्ञान उसके द्वारा अग्रेसरित होता हुआ पीढी दर पीढी आगे बड़ा।

इसे देवताओं का वाद्य भी बोला जाता हैं और माना जाता हैं कि देवताओं से ही यह परंपरा मानवों में चली आ रही हैं। इस वाद्य यंत्र का आध्यात्मिक पक्ष देखा जाय तो इसके हर भाग मे देवताओं का वास बताते हुए कहा गया है।

आपु पुत्रं भवे ढोलं,
ब्रह्मपुत्रं च डोरिका।

पौनपुत्रं भवे नादम्,
भीम पुत्रं गजा बलम।।

विष्णु पुत्रं भवे पूडम्,
नाग पुत्रं कुंडलिका।

कुरभ पुत्रं कंदोटिका,
गुणी पुत्रं कस्णिका।।

मुख्यतः ढोल डेढ़ फुट लंबा तथा सवा फुट चौडा तांबे और पीतल का बना वाद्य है। जिसके दोनों छोरों पर बकरी या हिरण की खाल लगी होती है। दमों ढोल के साथ लय बद्ध बजने वाला एक अन्य सहवाद्य है। यह भी तांबे का बना हुआ एक फुट का ब्यास का आठ इंच गहराई लिए हुए कटोरे के समान आकृति का वाद्य है। जिस पर भैंस की खाल मंडी होती हैं। बिना दमो के ढोल की ताल पूरी नही होती हैं। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

इस विधा के ज्ञान को संग्रहित एवं संकलित कर आधुनिक पीढी तक पहुंचाने का कार्य 1913 में राय साहब ईश्वरी दत्त घिल्डियाल जी, तथा तत्पश्चाद् पं. ईश्वरी दत्त, पं. गिरिजा दत्त नैथानी, भोला दत्त काला जी और पं ब्रह्मानंद थप्लियाल जी आदि को जाता है।

ढोल, दमों की प्रमुख तालों में:-
बढै, धुयेंल, शबद, रहमानी, धुयाँल, गँदाक्ष, बढ़ै, पिठै, मंढाँण, भौंर, उकाल, उन्यार्, आदि है। जिनमें में मांगलिक अवसरों बजने वाली बढ़ै, मंदिरों में प्रातः एवं सांय काल पर बजने वाली धुंयेल ताल प्रमुख है। गढ़वाल क्षेत्र में जागर की 18 तथा कुमाऊँ में 16 ताल बजती है। इसमें मुख्यतः प्रकृति, मनुष्य, देवताओं और त्योहारों से संबधित ताले है। जिनकी संख्या विद्वानों द्वारा मुख्य रूप से 300 तक तथा तालों में क्षेत्रीय विभिन्नता पाये जाने से 600 के लगभग बताई जाती है।

कहा जाता है कि कभी इस वाद्य के वाद्यक ढोल सागर की विधा में इतने पारंगत थे कि इसकी ताल से उत्पन्न नाद से मकानों की पठाल् तथा पेड़ों के पत्ते भी झड जाते थे। वादक तालों से ही आपस में एक दूसरे को अपना परिचय देने के साथ ही संवाद भी करते थे। एक दूसरे से श्रेष्ठतम् साबित करने के लिए अपनी ताल से दूसरे के ढोल को फोढ देते थे। पहाड़ों मे इनकी उकाल (चढाई) वेलार् उँदयार (उतराई) की ताल से पता चल जाता था की कोई बारात या देव डोली कहाँ पर है।

कभी तालों से एक दुसरे को अपना परिचय देने वाले वादक आज खुद के परिचय के मोहताज है। आज जहाँ ढोल सागर पर आकदमिक स्तर पर शोध हो रहे है। हम आभासी दुनिया में अपनी क्षेत्रीय अस्मिता, लोक संस्कृति को बचाये रखने की अपील करते हुए अपनी इति श्री कर लेते हैं। वही गिनती के रह गये ये पारंगत कलाकार आज अपने स्तर पर आजीविका के संघर्ष के साथ ही इस विधा को यथार्थ धरातल पर जैसे- तैसे बचाये रखने के जदोजहद में लगे हुए जूझ रहे है। लेकिन इनका कोई पूछन हार नही है। इनकी स्थिति को देखकर अपनी विरासतो के संरक्षण के हमारे दावे यथार्थ धरातल पर तो खोखले ही नजर आते हैं।


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