Wednesday, March 19, 2025
HomeCultureChar Dham चार धामUttarakhand. Chattis were once the main axis of Chardham Yatra चट्टी...

Uttarakhand. Chattis were once the main axis of Chardham Yatra चट्टी जो कभी थी चारधाम यात्रा की प्रमुख धुरी

Chattis were once the main axis of Chardham Yatra in Uttarakhand Himalayas.

 ✍️✍️✍️✍️✍️✍️  विनय सेमवाल                         

अप्रैल माह के आते ही उत्तराखंड में चार धामों के कपाट खुलने की प्रक्रिया के साथ ही यात्रा के प्रबंधन को लेकर एक बहस शुरू हो जाती हैं। हर वर्ष यात्रियों की संख्या में उतरोत्तर वृद्धि होने से इस पर बहस होना लाजमी भी है।

इस बहस के बीच में यदि सोचे कि युगों से अनवरत चली आ रही इस यात्रा का प्रबंधन अपने आरंभ के उस कठिन दौर में कैसे रहा होगा, जब यह क्षेत्र आज की सुविधाओं के विपरीत दुर्गम और दुरूह था ।

जिसके कारण तब हिमालय के इन तीर्थों की यात्रा पर आने वाला हर व्यक्ति इसे अपनी अंतिम यात्रा ही मानकर चलता था। संयोग से सकुशल घर पहुँच गया तो दैवीय कृपा और यदि नहीं आ पाया तो पवित्र धाम में भगवान के श्रीचरणों में मुक्ति। इसीलिए शायद तब बुजुर्ग लोग ही मुक्ति की चाह में अधिक आते थे।

चट्टियों के उदभव के कारण

हिमालय की कठिन भौगोलिक परिस्थिति और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद भी युगों से श्रद्धालुओं का मुक्ति की चाहत में हिमालय की इस देवभूमि में आने का सिलसिला नहीं थमा। समय के साथ साथ यहाँ यात्रियों के कारवाओं के साथ मानवीय हलचल भी निरंतर बड़ती गयी।
मानवीय गतिविधियों के बड़ने से गाँवों की बसावट भी विस्तार लेने लगी। तब स्थानीय स्तर पर धर्म भीरू लोगों का ध्यान परोपकारार्थ यात्रियों की सेवा सुश्रषा की ओर भी गया होगा और यात्रा मार्गो पर उनकी देखभाल का प्रबंध किया जाने की आवश्यकता भी महसूस करते हुए मार्गों पर अपने स्तर से सेवा हेतु व्यवस्था भी की जाने लगी होगी।

मार्ग में सेवा की व्यवस्थाओं के मिलने से कालांतर में धीरे-धीरे यात्रियों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि होती गयी। गिनती के लोगों की संख्या जब सैकड़ों से बड़कर हजारों में होने लगी तो परोपकारार्थ बने स्थलों पर इस दुर्गम क्षेत्र में आर्थिक दबाव पड़ना भी लाजमी था।

प्रारंभ में परोपकार के लिए बने इन स्थलों पर जब दबाव पडा तो साधन जुटाने में होने वाले व्यय का संपन्न तीर्थ यात्रियों द्वारा (मान्यतानुसार यात्रा में अपने पर किसी भी प्रकार का ऋण नहीं रखना चाहिए) के तहत दक्षिणा के रूप में इस सेवा का भुगतान होने लगा ।

इस प्रकार सेवा के साथ अर्थ तंत्र के समागम हो जाने पर मार्ग में भौतिक सुविधाओं का भी सूत्रपात होता गया। परिणाम स्वरूप अब तीर्थाटन जीविकोपार्जन का भी एक मुख्य साधन बनता चला गया और मार्ग में सुविधा केंद्रों के रूप में चट्टियों का विकास होने लगा।
इस प्रकार शनैः शनैः संपूर्ण यात्रा मार्ग में चट्टियों का जाल बिछता गया और ये यात्रा की मुख्य धुरी बन गयी।

आओ जाने चट्टी के बारे में

चट्टी

साधारणतः चट्टी शब्द का शाब्दिक अर्थ बैठने वाली चटाई से लिया जाता है। जो पहाडों में रिंगाल (बांस) से बनी होती हैं। अर्थात बैठने की जगह। तमिल भाषा में चेट्टी शब्द का प्रयोग दुकानदार के लिए होता है ।

यहाँ के संदर्भ में देखें तो तमिल के चेट्टी शब्द से ही चट्टी की व्युत्पति अधिक प्रासंगिक लगती है, क्योंकि धामों के पुजारीयों के साथ ही अधिकतर जातियों का प्रादुर्भाव दक्षिण भारत से ही हुआ हैं। अतः ऐसे में संभव है कि उनके साथ आए व्यापरियों(जिन्हें तमिल में चेट्टी कहा जाता है)द्वारा यात्रा मार्ग पर स्थापित व्यापारिक केंद्रों के लिए चट्टी शब्द उपयोग में लाया जाने लगा हो ।

इस प्रकार से कह सकते है ,गाँव से हटकर यात्रा मार्ग में हर एक दो मील पर स्थित वह छोटी बस्ती जहाँ पर यात्रियों और राहगीरों के लिये रात्रि प्रवास की सुविधा के साथ ही अन्य जरूरी सामान भी उपलब्ध रहते थे चट्टी कहलाती थी।

चट्टियों की दूरी तथा उनमें उपलब्ध सुविधाएं एवं उनका आकर प्रकार

मार्ग में हर दस से बीस मील की दूरी पर स्थित बड़ी चट्टियाँ यात्रा का मुख्य पड़ाव होती थी। छोटी चट्टियों की अपेक्षा इनमें अधिक सुविधाएं जैसे डाकघर, दवाखाना, पानी की उचित व्यवस्था के साथ ही यात्रानुरूप जरूरी सामानों तथा स्थानीय उत्पादों की खरीदारी के लिए छोटा बाजार आदि भी होते थे।

चट्टियों का निर्माण गढ़वाली लोगों ने ही किया था । इनमें सुमाड़ी के ब्राह्मण प्रमुख थे। ब्रिटिश सरकार के सातवें बंदोबस्त में उल्लेख मिलता है कि, पांडुकेशर के आगे घाट चट्टी के स्वामी सुमाड़ी के ब्राह्मण ही थे।

चट्टियों में स्थानीय लोगों द्वारा स्वयं के खर्च से बनाई हुई धर्मशालाएं होती थी। ये धर्मशालाएं चार फीट ऊँचे चबूतरे पर पहाड़ी शैली में कटुआ पत्थरों से बनी और स्लेट (पठाल) से ढकी हुई चौकोर ईमारत होती थी, जिसके दरवाजे मार्ग की ओर खुलते थे। इन भवनों में मुख्यतः एक चौडा बारामदा (गढ़वाली भाषा में अठाला) होता था। बारामदे में चौका के साथ चूल्हा भी बना होता था। यात्रियों को राशन, बर्तन और लकड़ी दे दी जाती थी। ठहरने वाले यात्री को अपना भोजन स्वयं पकाना होता था।
इनका प्रबंधन इतना व्यवस्थित होता था कि यात्री को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं उठानी पड़ती थी। जिसकी तारीफ यात्रा प्रबंधन हेतु बनी एडम कमेठी ने भी अपनी रिपोर्ट में की थी।

एडम पिलिग्रिज्म रिपोर्ट:- 1913 मे तत्कालीन सरकार द्वारा यात्रा प्रबंधन हेतु जी एफ एडम्स के नेतृत्व में गठित समिति जिसमे चार अन्य व्यक्ति जे सी रॉबर्ट्सन, एम ए हैरिस, खुशपाल सिंह, पृथ्विपाल सिंह, आदि भी शामिल थे।

समिति ने चट्टियों के प्रबंधन पर अपने विचार रखते हुए कहा था। ये जिस उद्देश्य के लिये बनायी गयी हैं उसके अनुरूप बिलकुल सही है। इससे अच्छी व्यवस्था कोई दूसरी और नही हो सकती है। अतः ऐसे में इन पर सराय और पड़ाव अधिनियम लागू करना व्यर्थ ही नही वरन हानिकारक भी सिद्ध होगा। यहाँ भोजन शुद्ध एवं सादा मिलता है। हालाँकि वस्तुओं का मूल्य ज्यादा है जिसका प्रमुख कारण माल ढुलान व्यय का अधिक होना है। मंडियों से माल बकरी की पीठ पर लाद कर लाया जाता है इस कारण मूल्य बड़ना लाजमी है। इनमें यात्री को किसी भी वस्तु के लिए एक पग भी चट्टी से बाहर नहीं निकलना पड़ता है।

प्रमुख चट्टियाँ

मैदानी क्षेत्र से उतराखंड के चार धामों में प्रवेश के लिए चार जगहों हरिद्वार, कोटद्वार, रामनगर तथा काठगोदाम से प्रमुख मार्ग थे। जो आज भी है। इनमे से हरिद्वार जो कि देवभूमि का प्रमुख प्रवेश द्वार भी है, से होकर आना, तीर्थ यात्रियों की पहली पसंद होता था।

हरिद्वार के स्वयं में तीर्थ भूमि होने तथा यहाँ से चारों धामों की दूरी अन्य जगहों की तुलना में कम भी पड़ती थी। यहाँ से बद्री केदार की यात्रा लगभग एक डेड माह में तथा यदि गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा भी साथ में की जाती थी तो तीन से चार माह में पूरी हो जाती थी।

हरिद्वार से बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच बड़ी, छोटी सहित लगभग 150 चट्टियाँ थी। जिनका विवरण पैदल मार्ग के अनुसार निम्नवत है। इनमें अन्य मार्गों गंगोत्री, यमुनोत्री, रामनगर, कोटद्वार तथा काठगोदाम के मार्ग की चट्टियाँ शामिल नहीं है।

हरिद्वार से केदारनाथ तथा बद्रीनाथ यात्रा मार्ग की प्रमुख चट्टियाँ

ऋषिकेश

यात्रा का आरंभ स्थल।यहाँ पर सभी सुविधाएं जैसे धर्मशालाएं, सदावर्त, दवाखाना आदि उपलब्ध थी। रोड मार्ग से जुड़ जाने से हरिद्वार से लौरी या अन्य यातायात के साधनों से पहुँचा जा सकता था।

– मुनिकिरेती

पैदल यात्रा की पहली बड़ी चट्टी थी। यहीं पर यात्री सवारी के लिये कुली, डंडी, घोड़ा, आदि के साथ मोलभाव करने के साथ ही यात्रा के लिए उपयोगी वस्तुओं की खरीद फरोख्त करते थे। यहाँ पर टिहरी राज्य द्वारा माप तौल करने के पश्चाद कुलियों से कर लेने के बाद यात्रा में उनके नाम की चिठ्ठी (पास) जारी की जाती थी ।

– गरुड़ चट्टी (प्रथम पड़ाव)

ऋषिकेश से 10 मील की दूरी पर स्थित चट्टी यात्रा का प्रथम पडाव थी।

– नाई मोहन चट्टी

ऋषिकेश से 26मील तथा गरुड़ चट्टी से 16मील की दूरी पर यात्रा का दूसरा पड़ाव।

– महादेव चट्टी

नाई मोहन से 14 मील की दूरी पर तीसरा पड़ाव।

– व्यास घाट,

नाई मोहन से 9मील तथा हरिद्वार से 50मील की दूरी पर चौथा पड़ाव।

– देवप्रयाग

व्यास घाट से 18मील की दूरी पर बड़ी चट्टी यात्रा का पाँचवां पड़ाव था। यात्रा के दौरान यहाँ यात्री दूसरे दिन पिंड दान, तर्पण आदि करने से पहले मार्ग के पहले तीर्थ में तीर्थ वास के तहत रात्रि को उपवास रखते थे।

– रानीबाग

देवप्रयाग से 9मील की दूरी पर छटवां पड़ाव।

– श्रीनगर

रानीबाग से 11मील तथा हरिद्वार से 79मील और कोटद्वार से 57,मील की दूरी पर यात्रा का सातवां पड़ाव था। उस समय का बड़ा शहर और सबसे बड़ी चट्टी थी। यहीं पर कोटद्वार तथा हरिद्वार से आने वाले दोनों मार्गो का भी मिलन होता है।

– भट्टिसेरा

यात्रा का आठवां पड़ाव, श्रीनगर से 8 मील की दूरी पर।

– रुद्रप्रयाग

भट्टिसेरा से 11मील की दूरी पर नौवां पड़ाव। यहाँ से केदारनाथ पहुंचने में लगभग पाँच दिन तथा बद्रीनाथ पहुंचने में नौ दिन लगते थे। यहाँ पर भी सभी सुविधाएं उपलब्ध थी।

रुद्रप्रयाग से केदारनाथ होते हुए बद्रीनाथ –

– अगस्तमुनि

रुद्रप्रयाग से11मील की दूरी पर दसवाँ पड़ाव।

– गुप्तकाशी

ग्यारहवाँ पड़ाव रुद्रप्रयाग से 13 मील की दूरी।

– मैखण्डा

बाहरवाँ पड़ाव।

– गौरी कुंड

तेहरवां पड़ाव ।

– केदारनाथ।

चौहदवां पड़ाव

– गौरी कुण्ड

केदारनाथ से वापसी गौरी कुण्ड पहंद्रवां पड़ाव।

– फाटा

गौरीकुंड से फाटा सोहलवाँ पड़ाव।

– उखीमठ

फाटा से उखीमठ सत्रहवाँ पड़ाव।

– गोपेश्वर या चमोली

उखीमठ से गोपेश्वर या चमोली(लालसांगा) अठाहरवां पड़ाव।

– पीपल कोटि

चमोली से 9मील पर यात्रा का उनिसवाँ पड़ाव था। यहाँ पर स्थानीय उत्पाद, मृग चर्म, गौ चँवर, पहाड़ी शहद, तथा शिलाजीत आदि के विक्रय का प्रमुख केंद्र था।

– गुलाबकोटि

पीपलकोटि से 10 मील की दूरी पर यात्रा का बीसवाँ पड़ाव।

– जोशीमठ

गुलाबकोटि से 8मील की दूरी पर इक्किसवां पड़ाव।

– पांडुकेशर

जोशीमठ से 9 मील की दूरी पर बाइसवाँ पड़ाव। श्री बद्रीनाथ पांडुकेशर से 11मील की दूरी तथा हरिद्वार से 339 मील की दूरी तय कर केदारनाथ होते हुए यात्री तेइसवें दिन में बद्रीनाथ पहुँचते थे।

रुद्रप्रयाग से बद्रीनाथ:-

यदि यात्री रुद्रप्रयाग से सीधे बद्रीनाथ जाता था तो निम्न चट्टियों से होकर अठारह दिन में (हरिद्वार से) पहुंचता था।

शिवनंदी रुद्रप्रयाग से11मील पर दसवाँ पड़ाव। कर्णप्रयाग शिवनंदी से 11मील पर ग्यारहवाँ पड़ाव। नंदप्रयाग बाहरवाँ पड़ाव कर्णप्रयाग से 12मील। लाल सांगा चमोली नंदप्रयाग से 7मील तेहरवां पड़ाव।

रुद्रप्रयाग से केदारनाथ होकर आने वाले यात्रीयों को भी बद्रीनाथ के लिए चमोली से ही होकर जाना पड़ता था। इससे आगे की चट्टियों का विवरण उपरोक्त ही हैं।

अन्य चट्टीयाँ

गुलर चट्टी, घटटु गाड़, बड़ी बजनी, कुंड चट्टी, बंदर चट्टी, ढांगू गड़, सेमल चट्टी, खंड चट्टी, कांडी चट्टी, छालरी चट्टी, उमरासु, सोड, दिवनी, कुलासु, रानीबाग, कोल्टा, रामपुर, विल्व केदार, फरासु, छान्ती खाल, खांकरा, नरकोटा, गुलाबराय, छतौली, रामपुर, सोरगाड, सौडि, बेडु बगड, चंदरपुरी, भीरी, कुंड, नारायण कोटी, नाला, भेट, फाटा, रामपुर, जंगल, रामबाडा, सोनप्रयाग, ब्युंग, जुँबा, कंथा, सिरसोली, ग्वाल्या बगड, कन्या, दैडा, दुगलबिठा, पोथिया बासा, वन्या कुंड, चोपता, भूलकुंड, पांगरबासा, जंगल, मंडल, वैरागना, खोल्टी, मठ, छिनका, सिया सैण, हाट, गरुड़ गंगा (पाखी), टंगणि, पाताल गंगा, कुम्हार (हेलंग), झड़कुला, विष्णुप्रयाग, घाट (पिनोला), लामबागड, विनायक। गौचर, चटवा पीपल, लँगासु, जैकण्डि, नौली, सोनला,मैठाणा, कुहेड,।


चट्टियों का प्रबंधन

चट्टी चौधरी

ब्रिटिश सरकार द्वारा हर चट्टी के प्रबंधन हेतु वहाँ की ग्राम सभा में एक समिति का गठन किया गया था । जिसका अध्यक्ष डिप्टी कमिशनर होता था। समिति के तहत चट्टी के कार्यो की देख रेख हेतु वहीं के निवासी की नियुक्ति की गई। जो चट्टी चौधरी कहलाता था। इसका प्रमुख कार्य चट्टी में यात्रियों को आवश्यक दवा उपलब्ध कराने के साथ ही सफाई व्यवस्था(सफाई कर्मचारी उपलब्ध थे) बनाये रखने के साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होता था कि चट्टी में कोई भी यात्री परेशान न हो।

चट्टियाँ आर्थिकी एवं रोजगार का केंद्र

जैसे-जैसे चट्टियों का विस्तार होता गया और वे विकसित होती गयी वैसे-वैसे ये आर्थिकी का भी महत्वपूर्ण केंद्र बनती गयी।
यात्रियों की बड़ती आमद को देखकर स्थानीय युवाओं को भी अब यहाँ पर यात्रा काल में रोजगार का सुनहरा अवसर दिखने लगा और वो इन दिनों चट्टियों में आकर अपने अनुरूप कार्यो,पथ प्रदर्शक ( गुमाश्ते) घोड़े, डंडी, कंडी, झंपान ढोने जैसी अन्य और गतिविधियों से जुड़ने लगे।इस प्रकार चट्टियों में सभी सुविधाओं के उपलब्ध हो जाने से निरंतर यात्रियों की संख्या में भी बडोत्तरी होती गयी और चट्टियाँ क्षेत्र की आर्थिकी का भी एक प्रमुख केंद्र बन गयी।
जिसकी पुष्टि ब्रिटिश सरकार की रिपोर्टें भी करती हैं।

ब्रिटिश उच्चाधिकारी ट्रेल की रिपोर्ट के अनुसार 1820 में लगभग 27000 श्रद्धालुओं ने धामों की यात्रा की थी। जिनमें अधिकतर जोगी और बैरागी थे। कई हजार यात्री उन दिनों गढ़वाल में कालरा फैले होने के कारण भय से वापस गये।

एटकिंसन ने अपने समय में दर्शन करने वाले यात्रियों की संख्या 40 से 50 हजार तक बताते हुए कहता है कि, कुंभ के समय यात्रियों की संख्या एक लाख तक पहुँच जाती है।

यात्रा के आर्थिक पहलू पर भी बात करते हुए एटकिंसन बताता है कि उस समय मार्गों में खासकर रुद्रप्रयाग मे अनाज का मूल्य 2से3सेर/रुपया था। संपूर्ण यात्रा में एक यात्री का न्यूनतम लगभग 20rs खर्च आता था। इसी के साथ उसने उस समय यात्रा से गढ़वाल की आय 5 लाख रुपये तक होना भी बताया है।


इस प्रकार वर्तमान में अतीत के अध्याय में समा चुकी चट्टियाँ उस कालखंड में सभी लोगो के सहयोग से अपने प्रयोजन में हर दृष्टिकोण से सफल रही थी ।

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments