विनय सेमवाल
चैत्र माह के आगमन के साथ उत्तराखंड में भी लोक-जीवन में नया उल्लास हर क्षेत्र में दिखने लगता है। वसंत जब यहां अपने चरम पर होता है, बच्चे फूलों से खेलते, फूल-देई पर्व में मस्त हो रहे होते हैं, युवा होली की रंगत लिए बसंत की खुमारी में होते हैं और लोक-गायक और लोक-वादक गाँव-गांव में वसंत की गीत गा रहे होते हैं। गांव के हर चौक- मुहल्ले में चैती बजाना, हर ओर उल्लास।
प्रकृति फूलों के जरिए अपना प्रेम विखेर रही होती है। सुहावना मौसम जीवन में नयी उमंग और उत्साह भर रहा होता है। उमंग और उल्लास का यह माहौल यहां के जीवन में एक अलग ही छटा प्रस्तुत कर रहा होता है।
बसंत के इस अप्रितम सौंदर्य के इस माहौल के बीच भाई-बहिन के रिश्तों को जोड़ने की कलेवा देने की अनूठी परम्परा इस उल्लास को दुगुना कर रही होती है। चैत्र माह का कलेवा इन दिनों हर घर में पहुंच रहा है।
पहाड़ समाज में इस मास में बेटियों से प्यार की एक यह परम्परा यदि छोटे-मोटे बदलाव को छोड़ दें तो आज भी उसी उत्साह से चली रही है। चैतके इस महिने बहिनों को भाई से मिलने का इस परम्परा के बहाने बेसब्री से इंतजार रहता है। यह इस माह को वसंत के साथ और विशेष बना देती है। दूसरे शब्दो में कहें तो इस परंपरा के द्वारा यहाँ बसंत का चरम ही बेटियों के स्नेह प्रदर्शन का त्योहार बन जाता है।
बसंत पंचमी के आते ही घरों की देहरियों पर जहाँ लोक वादको द्वारा लोक वाद्यों(ढोल और दमों) की ताल पर।,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
“जौ ल्यो पंचनाम देवता, जौ ल्यो पंचमी को साले,
जौ ल्यो हरि राम शिव, जौ ल्यो मोरी का नारैण
जौ ल्यो बारा मैना, जौ ल्यो पंचनाम देवता।
का गायन किया जाता हैं वही इस दौरान महिलाओं द्वारा घरों की देहरियों पर ,”आई पंचमी मऊ की, बाटी हरियाली जौ की”। गाते हुए वसंत के आगमन का स्वागत करती हैं। यह वसंत जैसे जैसे चैत माह के आते ही अपने चरम पर पहुँचता है उसे धीरे अपने मायके की याद भी दिलाने लगता है। जहाँ के बसंत में उस पर ससुराल की तरह बंदिशें नहीं थी। वह मायके की याद में गुनगुनाने लगती है। “आयो मैना चैत को, बाटो बते दो मैत को”।
ऐसा नही कि बेटी ही ससुराल में मायके की याद में व्याकुल है, मायके वालो का खासकर माँ का भी यही हाल होता है बेटी के विरह में उसे भी यह वसंत तब तक नही सुहाता जब तक चैत का कलेऊ(भिटोली) देने गया बेटा बहिन के घर से आकर उसकी कुशल क्षेम उसे नहीं दे देता। इस प्रकार यहाँ के गढ़वाल और कुमाऊँ अंचलों में प्राचीनतम समय से चली आ रही परंपरा के तहत यह मास ध्याणीयों (ब्याही बेटी) को भेंटुली, आलू कल्यो (उपहार) देकर याद करने और उनकी कुशल क्षेम लेने का भी है।
पहाडों के लोकमानस में रची बसी इस रीति और इस माह में दिये जाने वाली भेटुली, आउ कल्यो के जज्बातों का यहाँ के लोक जीवन में महत्व तथा इसमें समायी लोकभवना तथा रिश्तों की संवेदना को यदि समझना हो तो हमें दिल की गहराइयों में उतरकर आज की सूचना क्रांति से इत्तर थोड़ा पीछे उस दौर में जाकर देखना होगा जब आज की तरह हर गाँव तक मोटर रोड नही थी और आवाजाही पैदल मार्ग से होती थी। रंत रेबार के अतिरिक्त सूचनाओं के आदान प्रदान और कुशल क्षेम जानने का कोई अन्य साधन नही था।
चैत माह के आते ही पीठ पर सामली (बोझ) ,दिल में माँ का रेबार (संदेश) लिए शुरू हो जाती थी एक भाई की अपनी ध्याणियों(बहिनो) के घर तक भेटुली पहुँचाने की पैदल यात्रा का सफर।जिसमे तब भाई के अपने गंतब्य पर पहुँचते ही यादों की पोटली के साथ दिल से माँ का रेबार छूटते ही उमड़ पड़ता भावनाओं का शैलाब ।
वही दूसरी ओर इस दौरान ससुराल में बहिन की नजरे भी हरवक्त भाई की बाट जोहते हुए गाँव की पैदल पगडंडी पर एकटक गढी होती और हरेक आने- जाने वाले ब्यक्ति को निहारती रहती। जंगल, खेतों से घर आने पर भी उसकी नजरे अपने चौक या तिवारी में इस आशा से टिकी रहती कि मैत् से कोई आया तो नही वह कहती है ।
उल्यारा मास एगे, खुदेड बगत, बारा ऋतु बौडी ऐन बार फूल फूली गेन
ओन्दो की मुखडी न्यालदु, जाँदो का पिलवाडी।
एक दाणी चौल ब्वानु मैं उमली जौ, निरमैतीण छोरी ब्वनी मैं मैत जौ
भग्यानो का भाग होला, जौका पिठी जौला भाई।
मेतु बुलोला रीत जाणला, जौ दिशा ध्याणियों का गोती होला मैती
तों दिशों ध्याणी मैत जाली देशू,सरापी जायाँ माजी विधाता का घर
जनि कनी पुतरि चूची माजी, एक बिराली पालदी
कुत्ता पालदी, पैरा जाके देन्दो, केक पाली होली माँजी मैं निरासु सी फूल
जंगल में जिसे दूसरा मायका भी कहा जाता में अपने मैत् (मायका) की यादें साझा करते हुए सभी दीदी-भूली(सहेलियाँ) आपस में एक दूसरे से पूछती भी है की त्येरु कल्यो ऐगी ? या अभी तक नही आया! या! किले नि आयी?।वहाँ भी ध्यान मैत में ही रहता और वहीं की ही बातें होती रहती।जिसका कलेउ पहुँच जाता वह रुँधे गले से मैत की बाते सभी से साझा करती। यदि कभी किसी कारण वश मैती(भाई) के आने में देर हो जाय या रेबार (संदेश) समय से न आये तो ध्याणी की चिंता बढ़ जाती है और ऐसे में तब मायके की सुध समय से नही आने पर उसे “खुद” मे उस घुगूती की मधुर ध्वनि भी जिसके साथ वह खुद भी जंगलो में बतियाते हुए गुनगुनाती है अब उसकी खुद को बड़ा देने वाली लगने लगती हैं और वह उससे कहने लगती हैं। ——- —————-
मेरा मैत का देश न बास न बास घुघुती रूम झु
बे सुणली आँसू ढोललि, बाबा सुण लो सास मनालो,
नणद सुणली ताणा मारली, ताणा मारली रुम- झूम
न बास न बास घुघुती रूम झुम।
“ना बासा घुंगूती चैता की। मिते याद ए जानी मैते की”,,,,,,,,,।
ध्याणी के विरह की संपूर्ण भावाभिव्यक्ति गढ़ कवि नरेंद्र सिंह नेगी जी के इस गीत में भी समायी है—– “घुगुती घुरूण लगी म्येरा मैत की।, बौढी बौढी एग्ये ऋतु ऋतु चैत की।,,,,,,,,,,,,,,,।तिवारी मा बैठ्य होला बाबा जी उदास। बाटु हेराणि होली माँजी,,,,,,,,,,,।
उस ध्याणी के लिए तो इस माह के आते ही दुख निराशा का कोई पारवार नही होता जिसके मायके में कोई न होता। और वह अपनी करुणा की अभिव्यक्ति इस तरह से प्रकट करती है।
मैत वाली मैत होली, नीरमैतीणा रोली यकुलि
नि रौणु छोरी पापणी, कका बौडा मू रौण नी
छकी रौंण बे मू, तब नी रौण के मुंग।————–
एक दाणी चौल ब्वानु मैं उमली जौ, निरमैतीण छोरी ब्वनी मैं मैत जौ
भग्यानो का भाग होला, जौका पिठी जौला भाई।
मेतु बुलोला रीत जाणला, जौ दिशा ध्याणियों का गोती होला मैती
तों दिशों ध्याणी मैत जाली देशू,सरापी जायाँ माजी विधाता का घर
जनि कनी पुतरि चूची माजी, एक बिराली पालदी
कुत्ता पालदी, पैरा जाके देन्दो, केक पाली होली माँजी मैं निरासु सी फूल।
इसी दौरान यदि उसकी कोई सहेली मायके जाती है तो वो उससे कहती है। —————
जावा गैल्याणयो मैत जावा,मेरु रेबार माँजी मु ली जावा
मालू भैंसों कु खट्टो दे (दही), बे मू बोल्या रोणि छे
बाबा मू बोल्या देख के जाया, सास सेसुरो समझे जाई
यहाँ बेटियों से इतना प्रेम है कि माँ नंदा को भी बेटी के रूप मे पूजा जाता है ।और एक ध्याणी के रूप में उसे भी लोकजात के अवसर पर नंदाष्टामि के दौरान समोंण (उपहार) भेट की जाती हैं।यहाँ के लोक गीतों में गौरा के मायके जाने के हट का भी प्रसंग इस प्रकार मिलता है——- । “चार दिन स्वामी मी मैंतुडा जायोलु, ,,,,,, रात दिन गौरा त्येरु कन मैत होई,,,,,,,,,”।
भेटुली और कल्यो को यदि दी जाने वाली सामग्री से परे जज्बातो की नजर से देखे तो यह बेटी के लिये बे और बबा जी के प्यार और यादों की वह पोटली होती थी जिसे एक भाई कई दिनों तक शामली में लादे बहिन तक पहुँचता था। यकीनन प्यार की इस पोटली के जज्बातों की गहराई को शब्दों में बयाँ नही किया जा सकता।
धीरे धीरे भौतिक विकास से कदमताल करते हुए हम आधुनिकता की दौड़ में सुविधाओ के होते हुए भी समय की कमी का रोना रोकर सोशल मीडिया द्वारा याद भर कर देने से इतिश्री कर ले रहे हैं।पलायन के कारण खाली होते गाँवो के कारण हमारे समाज से रिश्तों की यह परंपरा अब कहीं बीते दिनों की बात होकर कहीं लोक कथाओ के रूप में दस्तावेजित होकर न रह जाय।
सभी ध्याणियों की सेवा में सादर समर्पित
( पारंपरिक लोक गीत गोविंद चातक जी की कृति गढ़वाल के लोकगीत से सादर )
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विनय सेमवाल
Chaitra month is also the month of daughters and sisters.