✍️✍️ विनय सेमवाल
चमोली के जिला मुख्यालय बनने के बाद एक आधुनिक शहर के रूप मे अस्तित्व में आने से पूर्व भी गोपेश्वर पौराणिक काल से भगवान शिव के एक प्रमुख निवास स्थल होने तथा यहीं से भगवान शंकर के बैल में आरुढ़ होकर कैलाश गमन करने के कारण तब के संपूर्ण आर्यवर्त में गोस्थल के नाम से भी अपनी एक अलग धार्मिक पहचान रखता था।

अभिलेखीय साक्ष्यों पर गौर करें तो आज से 1500 वर्ष पूर्व भी यह सनातन धर्म और संस्कृति का प्रमुख केंद्र था, जिसकी महिमा का गुणगान पुराण भी करते है।
पुराणों में जहाँ इसे गोस्थल कहा गया है, वहीं नागवंशी शासक जो भगवान् शंकर के अनन्य भक्त थे, उस वंश के ही एक शासक गणपति नाग भगवान् शंकर के दर्शनार्थ यहाँ आया और इसे रुद्रमहालय (भगवान रुद्र का घर) कहा।

पौराणिक ग्रंथों मुख्यतः स्कंद पुराण के केदारखंड के अग्नितीर्थ तथा पंच केदार महात्म्य में इसके धार्मिक महत्व् के बारे में भगवान् शिव और माता पार्वती के मध्य हुए वार्तालाप के द्वारा विस्तार से उल्लेख मिलता है। जिसमें भगवान् शिव आग्नितीर्थ के पश्चिम में और सगर मुनि के आश्रम के समीप गोस्थल की स्थिति बताते हुए माता पार्वती से कहते हैं कि, हे देवी ! उस अग्नितीर्थ में जहाँ , यहाँ- वहाँ मेरे शिवलिङ्ग विखरे हुए है, उसके पश्चिम में गोस्थल नाम का एक स्थान है। वहाँ में सदैव तुम्हारे साथ पश्विश्वर नाम से निवास करता हूँ।
अग्नितीर्थे नरः स्नात्वा सर्वपापै: प्रमुच्यते।
यत्र तत्र स्थले देवी शिवलिंगान्यनेकशः।। ६।।
तस्माद्वै पश्चिमे भागे नाम्ना गोस्थलकं स्मृतम।
तत्राहं सर्वदा देवी निवसामि त्वया सः।। ७।
सरस्वती नदी तिरे सगरस्याश्रम: शुभः।
तत्र शूलं ममाद्यापि वर्तते शिवलोकदम्।। १६।।
इसी प्रकार भगवान् शिव माता पार्वती को यहाँ पर विराजमान अपने स्वरूप और त्रिशूल के विषय में बताते हुए कहते हैं कि,
नाम्ना पश्विश्वरः ख्यातो भक्तानां प्रीतिवर्धनः।
त्रिशूलं मामकं तत्र चिह्नमाश्चर्यरूपकम।। ८।।
ओजसा चेच्चाल्यते तन्नाहि कम्पति कर्हिचित्।
कनिष्ठ्या तु यतस्पृष्टं भक्त्या तत्कंपते मुहु:।। ९।।
गोस्थल में मैं भक्तों को प्रीति प्रदान करने वाले पश्विश्वर नाम से प्रसिद्ध हूँ। वहीं पर मेरा आश्चर्य जनक त्रिशूल भी है। वह त्रिशूल बलपूर्वक हिलाये जाने पर तनिक मात्र भी नहीं हिलता है। लेकिन भक्ति पूर्वक कनिष्ठा अंगुली से हिलाने पर वह कंपायमान हो जाता है।
अन्यच्च संप्रवक्ष्यामि चिह्नम तत्र सुरेश्वरी।
एकस्तत्र पुष्पवृक्षोकालेपि पुष्पित: सर्वदा।। १०।।
इसी प्रकार मंदिर परिसर में भगवान स्वयं के सदा वसंतम् हृदया रविंदम् के स्वरूप को धरा पर परिलक्षित करती हुई सदैव पुष्पित रहने वाली कुंज की बेल के बारे में बताते हुए कहते हैं कि,वहाँ पर मेरा एक अन्य चिह्न स्वरूप एक वृक्ष भी है जो हमेशा पुष्पित रहता है।
अत्र वै पंचरात्रं यो जपं कुर्यात्समाहितः।
स सिद्धिम् महतीम् याति देवैरपी दुरासदाम।। ११।।
प्राणानत्र त्यजेद्यस्तु स लोके मामेक वसेत।
ब्रह्माघ्नो वा सुरापो वा गुरुतल्परतोपि वा।। १२।।
इसी क्रम में शिव आगे कहते हैं। हे देवी! यहाँ पर जो पाँच रात्रि तक एकाग्रचित होकर जप करता है उसे में देवों के लिए भी दुर्लभ सिद्धि प्रदान करता हूँ। यहाँ पर प्राण त्यागने वाला मेरे लोक में निवास करता है।
यात्राहम् वृषभारूढो गतः कैलासमुत्तमम्।
, गोस्थलम तु ततः ख्यातं सर्वपापप्रणाशनम्।। १७।।
यहाँ के गोस्थल नाम पड़ने के विषय में भगवान कहते हैं कि, हे देवी ! आदि कल्प में मैं यहाँ से बैल पर आरुढ़ (बैठकर) होकर कैलाश को गया था और तभी ही से यह स्थान संपूर्ण जगत में गोस्थल के नाम से विख्यात हुआ।
गोस्थल नाम के सबंध में एक आम किंवदंती या कहें तो एक कथा यह भी प्रचलित है कि, आदि काल में एक गाय प्रतिदिन यहाँ के कुंज की बेल के समीप स्थित शिवलिंग पर दूध चढ़ाती थी। पहले गाय के मालिक ने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया पर जब रोज दुहने पर भी गाय ने दूध नहीं दिया तो इसका कारण जानने के लिये उसने झुण्ड में उस गाय पर नजर रखना शुरू कर दिया। इस दौरान उसने देखा कि वह गाय प्रतिदिन प्रातः ही झुण्ड से अलग होकर कहीं और चली जाती है। इस पर ग्वाले ने एक दिन गाय का पीछा किया और देखा कि गाय अपना सारा दूध जंगल में एक शिवलिंग पर चढ़ा रही है। तब से इस स्थान को गोस्थल (गाय का स्थान) कहा जाने लगा।

वैतरणी

गोपीनाथ मंदिर से आधा किमी. की दूरी पर स्थित वैतरणी कुण्ड के महात्म्य के बारे में भगवान कहते हैं।
सोपि गच्छति देवेशि मामन्यस्य तु का कथा।
तस्मात्पूर्वप्रदेशे वै वसामि झषकेतुहा:।। १३।।
मया तत्र पुरा दग्धा झषकेतुर्महेश्वरी।
झष केतुहरो नाम्ना सर्वतीर्थफलप्रदः।। १४।।
हे देवेश्वरी इसके पूर्व मे दूसरे पवित्र तीर्थ का तो क्या कहना? यहीं पर मैने झषकेतु(कामदेव) को भष्म किया था।तभी से मैं यहाँ झषकेतु के नाम से निवास करता हूँ। यहाँ पर मैं झषकेतु के नाम से मैं भक्तों को सभी तीर्थों का फल प्रदान करता हूँ ।
पुनः रत्या तोषितोहं पुर्जन्मनि रूपकम्।
प्रादां तत्परमेशानि तद्भक्त्या यत्र संस्थित्तः।। १५।।
रतीश्वर् इति ख्यातो मम संगमदायक:।
रतिकुण्डं च तत्रास्ति स्नानान्मल्लोकदायकम्।। १६।।
हे देवी। कामदेव के भष्म हो जाने पर पुनः रति नें भी यहीं पर तप करके मुझे प्रसन्न किया था। तब मैंने रति के तप से प्रसन्न होकर कामदेव को पुनर्जन्म का वर दिया था। रति की भक्ति से प्रसन्न होकर मै यहाँ रतिश्वर नाम से निवास करता हूँ। यहाँ पर मेरा सानिध्य प्रदान करने वाला रति कुंड भी है उसमें स्नान करने से भक्तों को मेरे लोक की प्राप्ति होती है।
छायाचित्र साभार
हरीश भट्ट
Gopeshwar, Gopinath temple, Gosthal, Rudramahalay, Ratishwar, Chamoli, Uttarakhand.
Related